________________
१९८
__ कुन्दकुन्द-भारती मुनिका त्याग यदि निरपेक्ष नहीं है -- अंतरंगकी लालसासे रहित नहीं है तो उसके आशय -- उपयोगकी विशुद्धि नहीं हो सकती और जिसके आशयमें विशुद्धता नहीं है उसके कर्मोंका क्षय कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता।
जिस प्रकार जब तक धानका छिलका दूर नहीं हो जाता तब तक उसके भीतर रहनेवाले चावलकी लालिमा दूर नहीं की जा सकती इसी प्रकार जब तक बाह्य परिग्रहका त्याग नहीं हो जाता तब तक अंतरंगमें निर्मलता नहीं आ सकती और जब तक अंतरंगमें निर्मलता नहीं आ जाती तब तक कर्मोंका क्षय किस प्रकार हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता। अभिप्राय यह है कि कर्मक्षयके लिए अंतरंगकी विशुद्धि आवश्यक है और अंतरंगकी विशुद्धिके लिए बाह्य परिग्रहका त्याग आवश्यक है। जहाँ बाह्य परिग्रहके त्यागका उपदेश है वहाँ अंतरंगकी लालसाका त्याग भी स्वतःसिद्ध है, क्योंकि उसके बिना केवल बाह्य त्यागसे आत्माका कल्याण नहीं हो सकता यह निश्चित है ।।२०।। आगे अंतरंग संयमका घात परिग्रहसे ही होता है ऐसा कहते हैं --
किधरे तम्मि णत्थि मुच्छा, आरंभो वा असंजमो तस्स।
तध परदव्वम्मि रदो, "कधमप्पाणं पसाधयदि।।२१।। उस परिग्रहकी आकांक्षा रखनेवाले पुरुषमें मूर्छा -- ममतापरिणाम, आरंभ तथा संयमका विघात किस प्रकार नहीं हो? अर्थात् सब प्रकारसे हो। तथा जो साधु परद्रव्यमें रत रहता है वह आत्माका प्रसाधन कैसे कर सकता है -- आत्माको उज्ज्वल कैसे बना सकता है?
यदि कोई ऐसा कहे कि हम बाह्य परिग्रह रखते हुए भी उसमें मूर्छा परिणाम नहीं करते हैं इसलिए हमारी उससे कोई हानि नहीं होती है। इसके उत्तरमें श्री कुंदकुंद स्वामी कहते हैं कि जिसके पास परिग्रह है उसकी उस परिग्रहमें मूर्छा न हो, तज्जन्य आरंभ न हो और उन दोनोंके निमित्तसे उसके संयममें कोई बाधा न हो यह संभव नहीं है। जहाँ परिग्रह होगा वहाँ मूर्छा, आरंभ और असंयम नियमसे रहते हैं। इसके सिवाय जो शद्ध आत्मद्रव्यको छोड़कर परद्रव्यमें रत रहता है वह अपनी आत्माका प्रसाधन नहीं कर पाता.
१. २० वीं गाथाके बाद ज. वृ. में निम्नलिखित गाथाएं अधिक पायी जाती हैं --
गेण्हदि व चेलखंडं भायणमस्थित्ति भणिदमिदि सुत्ते। जदि सो चत्तालंबो हवदि कहं वा अणारंभो।।१।। वत्थक्खंडं दद्दियभायणमण्णं च गेण्हदि णियदं। विज्जदि पाणारंभो विक्खेवो तस्स चित्तम्मि।।२।। गेण्हइ विधुणइ धोवइ सोसेइ जदं तु आदवे खित्ता।
पत्थं च चेलखंडं विभेदि परदो य पालयदि ।।३।। विसेसयं २. किह ज. वृ.। ३. तम्हि ज. वृ.। ४. तह । ५. कह ज. वृ. । ६. पसाहयदि ज. वृ. ।