Book Title: Pravachana Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 84
________________ २१० कुन्दकुन्द-भारती यह शुभरागरूप प्रवृत्ति मुनियोंके अल्प रूपमें और गृहस्थोंके उत्कृष्ट रूपमें होती है। गृहस्थ इसी शुभ प्रवृत्तिसे उत्कृष्ट सुख प्राप्त करते हैं। ।५४ ।। , आगे कारणकी विपरीततासे शुभोपयोगके फलमें विपरीतता -- भिन्नता सिद्ध होती है यह कहते हैं -- रागो पसत्थभूदो, वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं। णाणाभूमिगदाणि हि, बीयाणि व सस्सकालम्मि।।५५।। जिस प्रकार नाना प्रकारकी भूमिमें पड़े हुए बीजसे धान्योत्पत्तिके समय भिन्न भिन्न प्रकारके फल मिलते हैं उसी प्रकार यह शुभ राग वस्तुकी विशेषतासे -- जघन्य मध्यम उत्कृष्ट पात्रकी विभिन्नतासे विपरीत -- भिन्न भिन्न प्रकारका फल मिलता है।।५५ ।। आगे कारणकी विपरीततासे फलकी विपरीतता दिखलाते हैं -- छदुमत्थविविहवत्थुसु, वदणियमज्झयणझाणदाणरदो। ण लहदि अपुण्णभावं, भावं सादप्पगं लहदि।।५६।। छद्मस्थ जीवोंद्वारा अपनी बुद्धिसे कल्पित देव गुरु धर्मादिक पदार्थोंका उद्देश्य कर व्रत नियम अध्ययन ध्यान तथा दानमें तत्पर रहनेवाला पुरुष अपुनर्भाव अर्थात् मोक्षको प्राप्त नहीं होता किंतु सुखस्वरूप देव या मनुष्य पर्यायको प्राप्त होता है।।५६।। आगे इसी बातको और भी स्पष्ट करते हैं -- अविदिदपरमत्थेसु य, विसयकसायाधिगेषु पुरिसेसु। जुटुं कदं व दत्तं, फलदि कुदेवेसु मणुजेसु।।५७।। परमार्थको नहीं जाननेवाले तथा विषय कषायसे अधिक पुरुषोंकी सेवा करना, टहल चाकरी करना और उन्हें दान देना कुदेवों तथा नीच मनुष्योंमें फलता है।।५७ ।। आगे इसीका समर्थन करते हैं -- जदि ते विसयकसाया, पावत्ति परूविदा व सत्थेसु। कह ते "तप्पडिबद्धा, पुरिसा नित्थारगा होंति।।५८ ।। यदि वे विषय कषाय पाप हैं इस प्रकार शास्त्रोंमें कहे गये हैं तो उन पापरूप विषय कषायोंमें आसक्त पुरुष संसारसे तारनेवाले कैसे हो सकते हैं? अर्थात् किसी भी प्रकार नहीं हो सकते।।५८ ।। आगे पात्रभूत तपोधन का लक्षण कहते हैं -- १. विसयकषायादिगेसु ज.वृ. । २. पुरुसेसु ज. वृ.। ३. मणुवेसु ज. वृ. । ४. किह ज. वृ. । ५. तं पडिबद्धा ज. वृ. ।

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