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कुन्दकुन्द-भारी
भत्ते वा खवणे वा, आवसधे वा पुणो विहारे वा।
उवधिम्मि' वा णिबद्धं, णेच्छदि समणम्मि विकधम्मि ।।१५।। उत्तममुनि भोजनमें अथवा उपवासमें अथवा गुहा आदि निवासस्थानमें अथवा विहारकार्यमें अथवा शरीररूप परिग्रहमें अथवा साथ रहनेवाले अन्य मुनियोंमें अथवा विकथामें ममत्वपूर्वक संबंधकी इच्छा नहीं करता है।।१५।। आगे प्रमादपूर्ण प्रवृत्ति ही मुनिपदका भंग है ऐसा कहते हैं --
अपयत्ता वा चरिया, सयणासणठाणचंकमादीसु।
समणस्स सव्वकालं, हिंसा सा "संततत्ति मदा।।१६।। सोना, बैठना, खड़ा होना तथा विहार करना आदि क्रियाओंमें साधुकी जो प्रयत्न रहित -- स्वच्छंद प्रवृत्ति है वह निरंतर अखंड प्रवाहसे चलनेवाली हिंसा है ऐसा माना गया है।
प्रमादपूर्ण प्रवृत्तिसे हिंसा होती है और हिंसासे मुनिपदका भंग होता है अतः मुनिको चाहिए कि वह सदा प्रमादरहित प्रवृत्ति करे।।१६।।
आगे छेद अर्थात् मुनिपदका भंग अंतरंग और बहिरंगके भेदसे दो प्रकारका होता है ऐसा कहते हैं --
मरदु व जिवदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा।
पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदीसु।।१७।। दूसरा जीव मरे अथवा न मरे, परंतु अयत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेवालेके हिंसा निश्चित है अर्थात् वह नियमसे हिंसा करनेवाला है तथा जो पाँचों समितियोंमें प्रयत्नशील रहता है अर्थात् यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है उसके बाह्य हिंसामात्रसे बंध नहीं होता है।
___आत्मामें प्रमादकी उत्पत्ति होना भावहिंसा है और शरीरके द्वारा किसी प्राणीका विघात होना द्रव्यहिंसा है। भावहिंसासे मुनिपदका अंतरंग भंग होता है और द्रव्यहिंसासे बहिरंग भंग होता है। बाह्यमें जीव चाहे न मरे परंतु जो मुनि अयत्नाचारपूर्वक गमनागमनादि करता है उसके प्रमादके कारण भावहिंसा होनेसे मुनिपदका अंतरंग भंग निश्चितरूपसे होता है और जो मुनि प्रमादरहित प्रवृत्ति करता है उसके बाह्य जीवोंका विघात होनेपरं भी प्रमादके अभावमें भावहिंसा न होनेसे हिंसाजन्य पापबंध नहीं होता है। भावहिंसाके साथ होनेवाली द्रव्यहिंसा ही पापबंधका कारण है। केवल द्रव्यहिंसासे पापबंध नहीं होता, परंतु भावहिंसा हिंसा की अपेक्षा नहीं रखती। वह हो अथवा न भी हो, परंतु भावहिंसाके होनेपर नियमसे पापबंध होता है।
१.आवसहे ज. वृ. । २. उवधिम्हि ज. वृ. । ३. विकहम्मि ज. वृ. ४. सव्वकाले ज. वृ. । ५. संतत्तियत्ति ज. वृ. ।