Book Title: Pravachana Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 50
________________ १७६ कुन्दकुन्द-भारती है, परंतु शुभ-अशुभके भेदसे विभाजित अशुद्धोपयोग कर्मबंधका कारण माना गया है। इस प्रकार आत्माका जो परद्रव्यके साथ संयोग होता है उसमें उसका अशुद्धोपयोग ही कारण है।।६३ ।। अब कौन उपयोग किस कर्मका कारण है यह बतलाते हैं -- उवओगो जदि हि सुहो, पुण्णं जीवस्स संचयं जादि। असुहो वा तध पावं, तेसिमभावे ण चयमत्थि।। ६४।। यदि जीवका उपयोग शुभ होता है तो पुण्यकर्म संचय -- बंधको प्राप्त होता है और अशुभ होता है तो पापकर्मसंचयको प्राप्त होता है। उन शुभ-अशुभ उपयोगोंके अभावमें कर्मोंका चय -संग्रह - बंध नहीं होता है।।६४।। आगे शुभोपयोगका स्वरूप कहते हैं -- । जो जाणादि जिणिंदे, पेच्छदि सिद्धे तधेव अणगारे। जीवे य साणुकंपो, उवओगो सो सुहो तस्स।।६५।। जो जीव परमभट्टारक महादेवाधिदेव श्री अर्हत भगवान्को जानता है, ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मसे रहित और सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे विभूषित श्री सिद्ध परमेष्ठीको ज्ञानदृष्टिसे देखता है, उसी प्रकार आचार्य उपाध्याय और साधुरूप निष्परिग्रह गुरुओंको जानता है देखता है तथा जीवमात्रपर दयाभावसे सहित है उस जीवका वह उपयोग शुभोपयोग कहलाता है।।६५ ।। अब अशुभोपयोगका स्वरूप बतलाते हैं -- विषयकसाओगाढो, दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठिजुदो। उग्गो उम्मग्गपरो, उवओगो जस्स सो असुहो।।६६।। जीवका जो उपयोग विषय और कषायसे व्याप्त है, मिथ्या शास्त्रोंका सुनना, आर्त रौद्ररूप खोटे ध्यानोंमें प्रवृत्त होना तथा दुष्ट - कुशील मनुष्योंके साथ गोष्ठी करना आदि कार्योंसे युक्त है, हिंसादि पापोंके आचरणमें उग्र है और उन्मार्ग -- विपरीत मार्गके चलानेमें तत्पर है वह अशुभोपयोग है।।६६।। आगे शुभाशुभ भावसे रहित शुद्धोपयोगका वर्णन करते हैं -- असुहोवओगरहिदो, सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्मि। होज्झं मज्झत्थोऽहं, णाणप्पगमप्पगं झाए।।६७।। जो अशुभोपयोगसे रहित है और शुभोपयोगमें भी जो उद्यत नहीं हो रहा है ऐसा मैं आत्मातिरिक्त अन्य द्रव्योंमें मध्यस्थ होता हूँ और ज्ञानस्वरूप आत्माका ही ध्यान करता हूँ। १. तह ज. वृ. ।

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