Book Title: Pravachana Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 17
________________ प्रवचनसार इसलिए हेय है और अमूर्तिक ज्ञान तथा सुख इससे विपरीत होनेके कारण उपादेय है।।५३।। आगे अतींद्रिय सुखका कारण अतींद्रिय ज्ञान उपादेय है यह कहते हैं -- जं पेच्छदो अमुत्तं, मुत्तेसु अदिदियं च पच्छण्णं। सकलं सगं च इदरं, तं णाणं हवदि पच्चक्खं ।।५४।। देखनेवालेका जो ज्ञान अमूर्तिक द्रव्योंको तथा मूर्तिक द्रव्योंमें अतींद्रिय अर्थात् परमाणु आदिको एवं क्षेत्रांतरित कालांतरित आदि प्रच्छन्न पदार्थों को इस प्रकार समस्त स्व और पर ज्ञेयको जानता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। अनंत सुखका अनुभावक होनेसे यह प्रत्यक्ष ज्ञान ही उपादेय है।।५४ ।। आगे इंद्रिय सुखका कारण इंद्रियज्ञान हेय है इस प्रकार उसकी निंदा करते हैं -- जीवो सयं अमुत्तो, मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं। ओगिण्हित्ता जोग्गं, जाणदि वा तण्ण जाणादि।।५५।। जीव निश्चयनयसे स्वयं अमूर्तिक है, परंतु व्यवहारसे मूर्ति अर्थात् शरीरमें स्थित हो रहा है। यह जीव द्रव्य तथा भाव इंद्रियोंके आधारभूत मूर्त शरीरके द्वारा ग्रहण करनेयोग्य मूर्त पदार्थको अवग्रह ईहा आदि क्रमसे जानता है और क्षयोपशमकी मंदता तथा उपयोगके अभावसे नहीं भी जानता है। इंद्रियज्ञान यद्यपि व्यवहारसे प्रत्यक्ष कहा जाता है तथापि निश्चयनयसे केवलज्ञानकी अपेक्षा परोक्ष ही है। परोक्ष ज्ञान जितने सूक्ष्म अंशमें सूक्ष्म पदार्थको नहीं जानता है उतने अंशमें चित्तके खेदका कारण होता है और खेद ही दुःख है। अतः दुःखका जनक होनेसे इंद्रियज्ञान हेय है -- छोड़नेयोग्य है।।५५ ।। __ आगे इंद्रियोंकी अपने विषयमें भी प्रवृत्ति होना एक साथ संभव नहीं है इसलिए इंद्रियज्ञान हेय है यह कहते हैं -- फासो रसो य गंधो, वण्णो सद्दो य पुग्गला होति। अक्खाणिं ते अक्खा, जुगवं ते णेव गेण्हंति।।५६।। स्पर्श रस गंध वर्ण और शब्द ये पुद्गल ही इंद्रियोंके विषय हैं सो उन्हें भी ये इंद्रियाँ एक साथ ग्रहण नहीं करती हैं। जिस प्रकार सब तरहसे उपादेय भूत अनंत सुखका कारणभूत केवलज्ञान एक साथ समस्त पदार्थोंको जानता हुआ सुखका कारण होता है उस प्रकार यह इंद्रियज्ञान अपने योग्य विषयोंका भी युगपत् ज्ञान न होनेसे सुखका कारण नहीं है।।५६।। आगे इंद्रियज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है ऐसा निश्चय करते हैं --

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