Book Title: Pravachana Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ है वही उसका स्वभाव है-- स्वरूपास्तित्व है । । ४ । । अब सादृश्यास्तित्व का स्वरूप कहते हैं -- इह विविहलक्खणाणं, लक्खणमेगं सदित्ति सव्वगयं । उवदिसदा खलु धम्मं, जिणवरवसहेण पण्णत्तं । । ५ । । निश्चयसे इस लोकमें धर्मका उपदेश देनेवाले श्री वृषभ जिनेंद्रने कहा है कि भिन्न भिन्न लक्षणोंवाले द्रव्योंका 'सत्' यह एक व्यापक लक्षण है। समस्त द्रव्योंमें सामान्य रूपसे व्याप्त रहनेके कारण 'सत्' को सादृश्यास्तित्व कहते हैं। स्वरूपास्तित्व विशेषलक्षणरूप है, क्योंकि उसके द्वारा प्रत्येक द्रव्यकी द्रव्यांतरसे पृथक् व्यवस्था सिद्ध होती है और सादृश्यास्तित्व सामान्यलक्षणरूप है, क्योंकि उसके द्वारा प्रत्येक द्रव्यकी पृथक् पृथक् सत्ता सिद्ध न होकर सबमें पायी जानेवाली समानताकी सिद्धि होती है । जिस प्रकार वृक्ष अपने अपने स्वरूपास्तित्वसे आम नीम आदि भेदोंसे अनेक प्रकारका है और सादृश्यास्तित्वसे वृक्षजातिकी अपेक्षा एक है उसी प्रकार द्रव्य अपने-अपने स्वरूपास्तित्वसे सत्की अपेक्षा सब एक हैं । स्वरूपास्तित्व विशिष्टग्राही है और सादृश्यास्तित्व सामान्यग्राही है । । ५ । । आगे यह बतलाते हैं कि एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यसे आरंभ नहीं होता, वह स्वयं सिद्ध है और सत्ता द्रव्यसे अभिन्न है -- अपृथग्भूत है -- दव्वं सहावसिद्धं, सदिति जिणा तच्चदो समक्खादो। सिद्धं तथे आगमदो, णेच्छदि जो सो हि परसमओ ।। ६ ।। प्रत्येक द्रव्य स्वभावसे सिद्ध है -- उसकी किसी दूसरे द्रव्यसे उत्पत्ति नहीं होती है तथा सत् स्वरूप है -- सत्तासे अभिन्न है ऐसा जिनेंद्र भगवान्ने यथार्थमें कहा है। जो पुरुष आगमसे उस प्रकार सिद्ध द्रव्यस्वरूपको नहीं मानता है वह परसमय है -- मिथ्यादृष्टि है । । ६ । । अब बतलाते हैं कि उत्पादादि त्रयरूप होनेपर ही सत् द्रव्य होता है. -- सदवट्टियं सहावे, दव्वं दव्वस्स जो हि परिणामो । अत्थेसु जो सहावो, ठिदिसंभवणाससंबद्धो ।।७।। स्वभावमें अवस्थित रहनेवाला सत् द्रव्य कहलाता है और गुणपर्यायरूप अर्थों में उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्यसे संबंध रखनेवाला द्रव्यका जो परिणमन है वह उसका स्वभाव है। सत् द्रव्यका लक्षण अवश्य है, परंतु वह न केवल स्थितिरूप है -- ध्रौव्यात्मक है, अपितु उत्पाद तथा व्ययरूप भी है। इस प्रकार उत्पादादि त्रिलक्षण सत् ही द्रव्यका स्वरूप है ।।७।। १. तह ज. वृ. ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88