Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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यत्किंचित् प्रासंगिक
__ कलिकालसर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचंद्र सूरि की अन्तिम कृति 'प्रमाणमीमांसा' प्रज्ञाहक् पण्डितप्रवर श्रीसुखलालजी द्वारा सुसम्पादित होकर सिंघो जैनग्रन्थमाला के ९ म मणि स्वरूप, सहृदय सद्विद्य पाठकों के करकमल में आज उपस्थित की जा रही है। पण्डितजी की इस विशिष्ट पाण्डित्यपूर्ण कृति के विषय में, इसी ग्रन्थमाला में, इतःपूर्व प्रकाशित इनके 'जैनतर्कभाषा' नामक ग्रन्थ के संस्करण के प्रारंभ में जो हमने 'प्रासंगिक वक्तव्य' लिखा था उसके अन्त में हमने ये पंक्तियाँ लिखी थीं
- "इसी जैनतर्कभाषा के साथ साथ, सिंघो जैनग्रन्थमाला के लिये, ऐसा ही आदर्श सम्पादनवाला एक उत्तम संस्करण, हेमचन्द्र सूरि रचित 'प्रमाणमीमांसा' नामक तर्क विषयक विशिष्ट ग्रन्थ का भी, पण्डितजी तैयार कर रहे हैं, जो शीघ्र ही समाप्तप्राय होगा । तुलनात्मक दृष्टि से दर्शनशास्त्र की परिभाषा का अध्ययन करनेवालों के लिये मीमांसा का यह संस्करण एक महत्त्व की पुस्तक होगी। बौद्ध, ब्राह्मण और जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्दों की विशिष्ट तुलना के साथ उनका ऐतिहासिक क्रम बतलानेवाला जैसा विवेचन इस ग्रन्थ के साथ संकलित किया गया है, वैसा संस्कृत या हिन्दी के और किसी ग्रन्थ में किया गया हो ऐसा हमें ज्ञात नहीं है।"
इस कथन की प्रतीति करानेवाला यह ग्रन्थ, मर्मज्ञ अभ्यासक गण के हाथों में, आज साक्षात् उपस्थित है। इसके विषय में अब और कोई अधिक परिचय देने की आवश्यकता नहीं। वही वाक्य फिर कहना पर्याप्त होगा कि हाथ कंकन को आरसी की क्या जरूरत।
इस ग्रन्थ पर पण्डितजी ने जो टिप्पण लिखे हैं, हमारे अल्पज्ञ अभिप्राय में तो, वे हेमचन्द्रसूरि के मूलग्रन्थ से भी अधिक महत्त्व के हैं। इन टिप्पणों में न केवल हेमचन्द्रसूरि के कथन ही को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है, प्रत्युत भारतीय प्रधान प्रधान दर्शनशास्त्रों के अनेकानेक पारिभाषिक और पदार्थ विषयक कथनों का बड़ा ही मर्मोद्घाटक
और तुलनात्मक विवेचन किया गया है। कई कई टिप्पण तो तत्तविषय के स्वतंत्र निबन्ध जैसे विस्तृत और विवेचनापूर्ण हैं। इन टिप्पणों के अध्ययन से भारतीय दर्शनविद्या के ब्राह्मण, बौद्ध और जैन इन तीनों विशिष्ट तत्त्व निरूपक मतों की विभिन्न तात्त्विक परिभाषाओं में और लाक्षणिक व्याख्याओं में किस प्रकार क्रमशः विकसन, वर्धन या परिवर्तन होता गया उसका बहुत अच्छा प्रमाण-प्रतिठित ज्ञान हो सकेगा। जहाँ तक हमारा ज्ञान है, अपनी भाषा में इस प्रकार का शायद यह पहला ही ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है और हमारा विश्वास है कि विद्वानों का यह यथेष्ट आदर पात्र होगा।
सिंघी जैन ग्रन्थमाला को यह मणि, अपेक्षाकृत समय से, कुछ विलम्ब के साथ प्रकाशित हो रही है-जिसका कारण पण्डितजी ने अपने संपादकीय वक्तव्य में सूचित किया ही है । गत वर्ष, ग्रीष्मकाल की छुट्टियों के पूरा होने पर, पण्डितजी अहमदाबाद से बम्बई होकर बनारस जा रहे थे, तब अकस्मात एपिन्डीसाईट नाम की प्राणघातक व्याधि ने उन्हें आक्रान्त कर लिया और उसके कारण, बम्बई में सर हरकिसनदास अस्पताल में शस्त्र क्रिया करानी पड़ी। व्याधि बड़ी उम्र थी और 'पण्डितजी की शरीरशक्ति यों ही बहुत कुछ क्षीण हो रही थी, इसलिये हमारे हृदय में तीव्र वेदना और अनिष्ट आशंका उत्पन्न हो गई थी कि हेमचन्द्रसूरि की मूलकृति की तरह इनकी यह भाषाविवृति भी कहीं अपूर्ण ही न रह जाय। लेकिन
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