Book Title: Prakrit Vigyana Pathmala
Author(s): Opera Jain Society Sangh Ahmedabad
Publisher: Opera Jain Society Sangh Ahmedabad
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ર૫
जा पढमदिट्ठ सन्ती, अमएण व मज्झ फुसइ अङ्गाई। सा परमसत्तचित्ता, उच्चयणिजा इहं जाया ॥३५॥ जइ वि य इच्छेज ममं, संपह एसा विमुक्कसम्भावा । -तह वि य न जायइ धिई, अवमाणसुदूमियस्स ॥३६॥ भाया मे आसि जया, बिभीसणो निययमेव अणुकुलो । उवएसपरो तइया, न मणो पीइं समलाणो ॥३॥ बद्धा य महासुहडा, अन्ने विविवाइया पवरजोहा । अवमाणिओ य रामो, संपइ मे केरिसो पीई ॥३८॥ जइ वि समप्पेमि अहं, रामस्स किवाएँ जणयनिवतणया । लोओ दुग्गह हियओ, असत्तिमन्तं गणेही मे ॥३९॥ इह सीहगरुडकेऊ, संगामे रामलक्खणे जिणिठं । परमविभवेण सीया, पच्छा ताणं समप्पे हं ॥४॥ न य पोरुसस्स हाणी, एव कए निम्मला य मे कित्ती । होह(हि)इ समन्थलोए, तम्हा ववसामि संगामं ॥४१॥
पउमचरिए
दयावीरमेहरहनरिंदोअन्नया य मेहरहो उम्मुक्कभूसणाऽऽहरणो पोसहसालाए पोसहजोग्गासणनिसण्णोसम्मत्तरयणमूलं, जगजीबहियं सिवालयं फलयं । राईणं परिकहेइ, दुक्खनिमुक्खं तहिं धम्मं ॥१॥
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