Book Title: Prakrit Vigyana Pathmala
Author(s): Opera Jain Society Sangh Ahmedabad
Publisher: Opera Jain Society Sangh Ahmedabad
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बते वसंतमासे, रिद्धि पावंति सयरवणराई । मं न करीरे पत्तं, ता किं दोसो वसंतस्स ॥३३॥ उइमि सहस्सकरे, सलोयणो पिच्छइ सयललोओ । नं न उलूओ पिच्छइ, सहस्सकिरणस्स को दोसो ॥३४॥ गयणमि गहा सयणमि, सुविणया सउणया वणग्गेसु । तह वाहरंति पुरिसं, जह दिटुं पुन्वकम्मेहिं ॥३५॥ कत्थइ जीवो बलवं, कत्थइ कम्माई हुंति बलिआई। नीवस्स य कम्मस्स य, पुवनिबद्धाई वेराई ॥३६॥ देवस्स मत्थए पाडिऊण, सव्वं सहति कापुरिसा । देवो वि ताण संकइ, जेसिं तेओ परिप्फुरइ ॥३७॥ जी मरणेण समं, उप्पजइ जुब्वणं सह जराए । रिद्धी विणाससहिआ, हरिसविसाओ न कायब्वो ॥३८॥ अवगणइ दोसलक्ख, इक्कं मंनेइ जं कयं सुकयं । सयणो हंससहावो, पिअइ पयं वज्जए नीरं ॥३९॥ संतगुणकित्तणेण वि, पुरिसा रज्जति जे महासत्ता । इअरा अप्पस्स पसंसणेण, हियए न मायति ॥४०॥ संतेहिं असंतेहिं अ, परस्स किं जंपिएहिं दोसेहिं । अच्छो जसो न लब्भइ, सो वि अमित्तो कओ होइ ॥४१॥ विहलं जो अवलंबइ, आवइपडिअं च जो समुद्धरइ । सरणागयं च रक्खइ, तिसु तेसु अलंकिआ पुहवी ॥४२॥ संह जागराण- सह मुआणाणं, सह हरिससोअवंताणं । नयणाणं व धन्नाणं, आजम्मं निच्चलं पिम्मं ॥४३॥
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