Book Title: Prakrit Vigyana Pathmala
Author(s): Opera Jain Society Sangh Ahmedabad
Publisher: Opera Jain Society Sangh Ahmedabad
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कत्थ वि जलं न छाया, कत्थ वि छाया न सीअलं सलिलं । जलछाया संजुत्तं तं पहिअ ! सरोवरं बिरलं ॥ ५५ ॥
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कत्थवि तवो न तैत्त, कत्थ वि तत्तं न सुद्धचारितं । तवतत्तचरणसहिआ, मुणिणो वि अ थोव संसारे ॥५६॥ दुक्खाण ऐंउ दुक्खं, गुरुआण जणाण हिअयमज्झमि । जंपि परो पत्थिज्जइ, जंपि य परपत्थणाभंगो ॥५७॥
किं किं न कथं, को को न पत्थिओ, कह कह न नामिअं सीसं ! | दुब्भर उअरस्स कए, किं न कयं किं न कायव्वं ॥ ५८ ॥ जीवंति खग्गछिन्ना, पञ्वयपडिआवि के वि जीवंति । जीवंति उदहिपडिआ, चंटुच्छिन्ना न जोवंति ॥ ५९॥ जं अजिअं चरितं, देसूणाए अ पुग्वकोडोए । तंपि कसाइयमित्तो, हारेइ नरो मुहुत्तेण ॥६०॥
तं नत्थि घरं तं नत्थि, राउलं देउलं पि तं नत्थि । जत्थ अकारण कुविआ, दो तिन्नि खला न दीसंति ॥ ६१ ॥ अइतज्जणा न कायव्वा, पुत्तकलत्तेसु सामिए भिच्चे । 'हिअं पि महिज्जंतं, छंर्डेइ देहं न संदेहो ॥६२॥ वल्ली नरिंदचित्तं, वक्खाणं पाणिअं च महिलाओ । तत्थ य वच्चति सया, जव्थ य धुत्तेर्हि निज्जति ॥ ६३ ॥ अवलो अइ गंथेत्थं, अंत्थंगहिऊण पावए मुक्खं । परलोए देइ दिट्ठी, मुणिवर सौरिच्छया वेसा ॥६४॥ दो पंथेहिं न गम्मइ, दोमुँहेसूई न सीव कथं । - दुन्नि न हुंति कया वि हु, इंदियसुक्खं च मुक्खं च ॥ ६५ ॥
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