Book Title: Prakrit Vigyana Pathmala
Author(s): Opera Jain Society Sangh Ahmedabad
Publisher: Opera Jain Society Sangh Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 490
________________ ४४७ वसणे विसायरहिया, संपत्तीए अणुचरा न हुंति । मरणे वि अणुब्बिग्गा, साहससारा य सप्पुरिसा ॥ ६६ ॥ अणुवद्विस्स धम्मं, मा हु कहिज्जाहि सुट्टु वि पियस्स । विच्छायं होइ मुहं, विज्झायरिंग धमंतस्स ॥ ६७॥ रयणि अभिसारिआओ, चोरा परदारिआ य इच्छति । तालायरा सुभिक्खं, बहुधन्ना केइ दुब्भिक्खं ॥ ६८ ॥ जं किंचि पमाएणं, न सुटु भे वट्टियं मए पुवि । तं भेःखामेमि अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ ॥ ६९ ॥ गुणसुअस्स वयणं, घयपरिसित्तो व्व पावओ भाइ । गुणहीणस्स न सोहइ, नेहविहूणो जह पईवो ॥७०॥ अइबहुयं अइबहुसो, अइपमाणेण भोयणं भुत्तं । हाएज्ज व वामेज्जव, मारेज्ज व तं अजीरंत ॥ ७१ ॥ जंपेज्जपियं विजयं, करिज्ज वज्जेज्ज पुत्ति ! परनिंदं । बसणे वि मा विमुंचसु, देहच्छाय व्व नियनाहं ॥ ७२ ॥ किं लट्ठे लहिही वरं पिययमं, किं तस्स संपजिही, किं लोयं ससुराइयं नियगुण-गामेण रंजिस्सए । किं सीलं परिपालिही पसविही, किं पुत्तमेवं धुवं, चिता मुत्तिमई पिऊण भवणे, संवट्टए कन्नगा ॥ ७३ ॥ धम्माराम स्वयं खमाकमलिणी - संघाय निग्धायणं, मज्जायातडिपाडणं सुहमणो-हंसस्स निव्वासणं । बुढि लोहमहणणैवस स्वणणं, सत्ताणुकंपाभुवो, संपाडेइ परिग्गहो गिरिनई - पूरो व्व वड्ढंतओ ॥७४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512