Book Title: Prakrit Vigyana Pathmala
Author(s): Opera Jain Society Sangh Ahmedabad
Publisher: Opera Jain Society Sangh Ahmedabad

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Page 484
________________ लच्छी विगुणमवि गुणड्ढं रुबहीणं पि रम्मं, जडमवि महमंतं मंदसत्तं पि सूरं । मकुलमवि कुलीण तं पर्यपंति लोया, नवकमलदलच्छी जं पलोएइ लच्छी ॥ ११ ॥ नाई रूवं विज्जा, तिण्णि वि निवडंतु कंदरे विवरे । आत्थु चिअ परिवडूढउ, जेण गुणा पायडा हुंति ॥१२॥ सीलं— अलसा होइ अकज्जे, पाणिवहे पंगुला सया होई । परतत्तिसु बहिरा, जच्चंधा परकलत्तेसु ॥ १३॥ जो वज्जइ परदारं, सो सेवइ नो कयाइ परंदारं । सकलत्ते संतुट्ठो, सकैलत्तो सो नरो होइ ॥ १४ ॥ वरं अग्गिमि पवेसो, वरं विसुद्वेण कम्मुणा मरणं । मा गहिभव्वयभंगो, मा जीअं स्वलिअसीलस्स ||१५|| भावोजा दव्वे होइ मई, अहवा तरुणीसु रूववंतीसु । सा जइ जिणवरधम्मे, करयलमज्झे ठिआ सिद्धी ॥ १६ ॥ तक्कविणो विज्जो, लक्खणहोणो अ पंडिओ लोए । भावविहूणो धम्मो, तिन्नि वि नूणं हसिज्र्ज्जति ॥ १७ ॥ वंशे बिति जहित्य सत्थपढणं, अत्थावबोहं विणा, सोहग्गेण विणा मैडपकरणं, दाणं विणा संभमं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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