Book Title: Prakrit Vigyana Pathmala
Author(s): Opera Jain Society Sangh Ahmedabad
Publisher: Opera Jain Society Sangh Ahmedabad

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Page 482
________________ • जणणि पिपिययमं, पिययमं पि जंगणि जणो विभावन्तो । महरामण मत्तो, गम्मागम्मं न याणेइ ॥२॥ न हु अप्पपरविसेसं, वियाणए मज्जपाणमृढमणो । बहु मन्नइ अप्पाणं, पहुं पि निब्भत्थए जेण ॥ ३॥ वयणे पसारिए साणया, विवरब्भमेण मुत्तंति । पहपडियस्स सवस्स व दुरप्पणो मज्जमत्तस्स ॥४॥ धम्मत्थकामविग्धं, विणियमइतित्तिकंतिमज्जायं । मज्जं सव्वेसि पि हु, भवणं दोसाण किं बहुणा ? ॥५॥ जं जायवा ससयणा, सपरियणा सविहवा सनयरा य । निच्च सुरापसत्ता, स्वयं गया तं जए पयडं ॥६॥ एवं नरिंद ! जाओ, मज्जाओ जायवाण सव्वखओ । ता रन्ना नियरज्जे, मज्जपवित्ती वि पडिसिद्धा ||७|| कुमारपाल प्रतिबोघे. (१७) पाइअ - सुभासिअ -पज्जाणि न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बम्भणो । न मुणी रण्णवासेण, कुसचारेण न तावसो ॥ १२ ॥ समयाए समणो होइ, बम्भचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ, तवेणं होइ तावसो ॥२॥ कम्णा बम्भणो होइ, कम्मुणा होइ वत्तिओ । वइसो कम्मुणा होइ, सुद्दों हवइ कम्मुणा ||३|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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