Book Title: Prakrit Vigyana Pathmala
Author(s): Opera Jain Society Sangh Ahmedabad
Publisher: Opera Jain Society Sangh Ahmedabad
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पाणीहिं महा एए अन्ने भोलग्गंति । तेण भणियं महा तुम्ने आणवेह सहेलोलग्गामि । तमो जोग्गो ति भगवया पब्वाविमो, सुगई च पाविओ । एवं विणीमो धम्मारिहो होइ त्ति ॥
धर्मरत्नप्रकरणे।
कुमारवालभूवालस्स
जीवहिंसाइचाओ इय जीवदयारूवं, धम्म सोऊण तुट्ठचित्तेण । रन्ना भणियं मुणिनाह !, साहिओ सोहणो धम्मो ॥१॥ एसो मे मभिरुइओ, एसो चित्तमि मज्झ विणिविट्ठो । एसो चिय परमत्थेण घडएं जुत्तीहिं न हु सेसो ॥२॥ मन्नंति इमं सव्वे, जं उत्तमअसणवसणपमुहेसु । दिन्नेसु उत्तमाइं, इमाइं लब्भन्ति परलोए ॥३॥ एवं सुहदुक्खेसु, कीरतेसु परस्स इह लोए । ताई चिय परलोए, लब्भंति अणंतगुणियाई ॥४॥ जो कुणइ नरो हिंसं, परस्स जो जणइ जीवियविणासं । विरएइ सोक्खविरह, संपाडइ संपयाभंसं ॥५॥ सो एवं कुणमाणो, परलोए पावए परेहितो। बहुसो जीवियनासं, सुहविगमं संपओच्छेयं ॥६॥ जं उपइ तं लब्भइ, पभूयतरमत्थ नत्थि संदेहो । वविएसु कोहवेसुं, लब्भंति हि कोदवा चेव ॥७॥
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