Book Title: Prakrit Vigyana Pathmala
Author(s): Opera Jain Society Sangh Ahmedabad
Publisher: Opera Jain Society Sangh Ahmedabad
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४३१४
एहि एहि सीयली किर होइ अंबखल्लिया, सो लज्जितो, घरं गएण अंबोडिओ भणितो य-एरिसे कज्जे नीयमागंतूण कण्णे कहिज्जइ, अन्नया घरं पलितं तस्स भज्जाए भणितो-लहं सद्दावेह ठक्कुरं ति, ततो सो तत्थ गओ सणियं सणियं आसन्नं होऊण कण्णे कहेइ, जाव सो तत्थ गच्चा सणियं सणियं आसन्नं होऊण अक्खाउं पयट्टो, ताव घरं सव्वं झाँमियं, तत्थ वि अंबाडिमो, भणियो य-एरिसे कज्जे न आगम्मइ, न वि अक्खाइज्जइ, किंतु अप्पणा चेव पाणियं वा गोमुत्तं वा आदि काउं गोरसं पि छुब्भह ताव जाव विज्जाइ, अन्नया तस्स दंडिपुत्तगस्स व्हाइऊण वितस्स धूमो निग्ग छइ त्ति गोमुत्तं छुळे गोमूत्ताइयं च ॥
आवश्यकसूत्रवृत्तौ. (१२) सिसुवालकहा [ शिशुपालकथा] वसुदेवसुसाए सुओ, दमघोसणराहिवेण मद्दीए । जाओ चउब्भुओऽब्भुय-बलकलिओ कैलहपत्तट्ठो ॥१॥ दठूण तओ जणणी, चउब्भुयं पुत्तमब्भुयमणग्धं । भयह रिसविम्हयमुही, पुच्छइ नेमित्तयं सहसा ॥२॥ णेमित्तएण मुणिऊण, साहियं तीइ हट्ठहिययाए । जह एस तुब्भ पुत्तो, महाबलो दुज्जओ समरे ॥३॥ एयरस य जं दळूण, होइ साभावियं भुयाजुगलं ।
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