Book Title: Prakrit Vigyana Pathmala
Author(s): Opera Jain Society Sangh Ahmedabad
Publisher: Opera Jain Society Sangh Ahmedabad

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Page 467
________________ ४२४ रमिहामि पुणो सुन्दरि !, संपद आलम्बणं छेत्तुं ॥२४॥ पुप्फविमाणारूढा, पेच्छसु सयलं सकाणणं पुहई । भुञ्जसु उत्तमसोक्खं, मज्झ पसाएण ससिवयणे ! ॥२५॥ सुणिऊण इमं सीया, गग्गैरकण्ठेण भणइ दहवयणं । निसुणेहि मज्झ वयणं, जइ मे नेहं समुन्वहसि ॥२६॥ घणकोववसगएण वि, पउमो भामण्डलो य संगामे । एए न घाइयव्वा, लङ्काहिव ! अहिमुहावडिया ॥२७॥ ताव य जोवामि अहं, जाव य एयाण पुरिससीहाणं । न सुणेमि मरण सई, उच्चैयणिज्ज अयण्णसुहं ॥२८॥ सा जंपिऊण एवं, पडिया धरणीयले गया मोहं । दिवा य रावणेणं, मरणावत्था पयलियंसू ॥२९॥ मिउमाणसो खणेणं, जाओ परिचिन्तिउं समाढत्तो । कम्मोयएण बद्धो, कोवि सिणेहो अहो गुरुओ ॥३०॥ घिद्धि त्ति गरहणिज्जं, पावेण मए इमं कयं कम्मं । अन्नोन्नपीइपमुह, विओइयं जेणिमं मिथुणं ॥३१॥ ससिपुण्डरीयधवलं, निययकुलं उत्तमं कयं मलिणं । परमहिलाए कएणं, वम्मह अर्णियत्तचित्तेणं ॥३२॥ घिद्धि अहो अकज्ज, महिला जं तत्थ पुरिससीहाणं । अवहरिऊण वणाओ, इहाणिया मयणमूढेण ॥३३।। नरयस्स महावीही, कढ़िणा सग्गग्गला अणयभूमी। सरिय ब कुडिलहियया, बज्जेयम्बा हवइ नारी ॥३४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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