Book Title: Prakrit Vidya 2000 07 Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain Publisher: Kundkund Bharti Trust View full book textPage 2
________________ आवरण पृष्ठ के बारे में प्राकृत-साहित्य में 'धन' के बारे में अनेकत्र मार्मिक एवं उपयोगी उद्गार प्राप्त होते हैं। धन' लोक में अच्छाई और बुराई —दोनों क्षेत्रों में सहायक संसाधन है। पुण्योपार्जित धन को विवेकीजन दान, धर्मप्रभावना एवं परोपकार आदि पुण्यकार्यों में नियोजित करके उसे आगामी पुण्यबन्ध का कारण भी बना लेते हैं। मनीषियों ने कहा है कि “धन और जल बहता हुआ ही अच्छा होता है, रुकने पर सड़ने लगता है।" मात्र संग्रहवृत्ति से धन के प्रति उत्पन्न होने वाला मोहभाव अनेकों अनर्थों का कारण बनता है। इसीलिये आचार्य शिवार्य ने लिखा है— “अत्थं अणत्यमूलं।" – (भगवती आराधना 1808) अर्थात् धन सभी अनर्थों की जड़ है। परिवार, राज्य एवं राष्ट्र के हित में धन की आय एवं व्यय के बारे में भी जैन आचार्यों ने अत्यन्त व्यावहारिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन किया है— __ “आय-व्ययमुखयोर्मुनिकमण्डलुरेव निदर्शनम् ।” –(आचार्य सोमदेवसूरि. नीतिवाक्यामृत. 18/6) अर्थात् आय (आमदनी) एवं व्यय (खर्च) करने के बारे में शिक्षा लेने के लिए मुनिराज (दि० जैन साधु) के कमण्डलु को आदर्श बनाना चाहिए। अर्थात् जैसे मुनिराज के कमण्डलु में जल भरने का मुँह बड़ा होता है तथा खर्च करने का छोटा होता है; उसीप्रकार आमदनी का स्रोत व्यापक हो तथा खर्च की मर्यादा रखें; तभी व्यक्ति, परिवार और राष्ट्र उन्नति कर सकते हैं। आय से अधिक खर्च करनेवाले व्यक्ति सदैव कष्ट पाते हैं। राष्ट्र. उद्योगपति एवं गृहस्थ– तीनों के लिए कमण्डलु का यह आदर्श अपनाना चाहिये। राष्ट्र की मुद्रा पर एवं वित्तमंत्री जी के कार्यालय में कमण्डलु का चित्र इसी अभिप्राय से होना चाहिए। क्योंकि अर्थशास्त्रियों का कथन है कि आय से अधिक व्यय के कारण ही भारत की स्थिति दिन-प्रतिदिन शोचनीय होती जा रही है। __ अत: अनाप-शनाप धन संग्रह करने, येन-केन-प्रकारेण धनोपार्जन करने की लालची प्रवृत्ति कभी नहीं करनी चाहिए । व्यक्ति को अपनी आवश्यकता के अनुरूप संग्रहवृत्ति करनी चाहिए. इसी भावना की कोख से 'अपरिग्रहवाद' जन्म लेता है। महान गांधीवादी राजर्षि पुरुषोत्तम दास जी टंडन को पीने के लिए किसी से गिलास भरकर दूध दिया. तो उन्होंने मात्र छंटाक भर दूध लेकर शेष दूध यह कहकर लौटा दिया कि “मैं किसी बच्चे के हिस्से के दूध से अपनी उदरपूर्ति नहीं करना चाहता हूँ।” वे नीति के इतने पक्षधर थे कि दो पेन रखते थे. एक सरकारी काम के लिए सरकारी स्याही वाला और निजी काम के लिए अपने पैसों की स्याही वाला। आचार्य चाणक्य भी सरकारी कार्य के लिए सरकारी तेल का व निजी कार्य के लिए अपने पैसे से खरीदे तेल का दीपक जलाते थे। धन के प्रति मर्यादा की शिक्षा ही व्यक्ति. समाज एवं राष्ट्र के सुखी. संतोषी एवं उन्नतिशील बना सकती है। और इसके लिए मुनिराज के कमण्डलु से भी शिक्षा ली जा सकती है। इसीलिए इसे अहिंसक अर्थशास्त्र भी कहा गया है। –सम्पादकPage Navigation
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