Book Title: Prakrit Bhasha
Author(s): Prabodh Bechardas Pandit
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 11
________________ ( ७ ) आजकल कोई ऐसा करता भी नहीं। जैसे-जैसे भाषाविज्ञान और ध्वनिविज्ञान का गभीर अध्ययन होता जा रहा है, वैसे मालूम होता है किसी भी भाषा के उच्चारण का ख्याल सिर्फ ऐसे अक्षर या शब्द वनाने से नहीं आ सकता । पद के अन्तर्गत कुछ ध्वनियों ऐसी होती है जो समग्र उच्चारण को बदल देती है। जैसे कि दूर रहे र कार से 'न' का 'ण' हो जाता है । यह तो एक सुपरिचित प्रक्रिया है। ऐसी कई प्रक्रिया भाषा मे होती है और उनकी खोज अवश्य करनी होगी। आजपर्यन्न इयु के स्वरूप की कल्पना मे अधिकतर एक-एक अक्षर को अलग अलग कर समझाने की प्रवृत्ति से ऐसी प्रक्रियाओ की उपेक्षा हुई है। पिछले कुछ सालो से इस दृष्टि से भापाविज्ञान की खोज मे थोडी बहुत प्रवृत्ति हाने लगी है । इस विषय मे लन्दन स्कूल के ध्वनिवैज्ञानिकों के निबध एवं ग्रन्थ की ओर आपका ध्यान खीचता है। (Prof Firth-Sounds ard Prosodies", Trans actions of Philological Society, W.S. Allen-"Phonetics in Ancient India” 1953 Oxford Uni Press, ) ___ यह है इन्डोयुरोपियन भाषा के ज्ञान के बारे में हमारी मर्यादा । इयु की वोलियो के ज्ञान के लिए भी ईसा के पूर्वीय आधार भूत लिखित साहित्य सिर्फ चार या पाच बोलियो मे ही मिलता है। हिटाईट, इन्डोईरानियन, ग्रीक, गोथिक और लेटिन । प्राचीन साहित्य लिपिबद्ध न होने के अनेक कारण हो सकते है । उस काल मे लिपिज्ञान मर्यादित होगा । और दूसरा भी कारण हो सकता है । हम जानते है कि प्राचीनतम इयु प्रज्ञा मे भी किसी न किसी ढग से यज्ञ द्वारा देवताओ का आह्वान करना और उन देवताओ की सहायता से दुश्मनो का नाश करना इन दो प्रवृत्तियों को करनेवाले वर्ग पुरोहित और वीर-दात्रिय विद्यमान थे । क्रमश , इयु के अनुगामी हरेक समाज मे पुरोहित का महत्त्व बढता रहा, और जहा-जहा इयु प्रजा गई वहाँ पुरोहित का महत्त्व स्थापित हो गया। यज्ञ की, और उसके द्वारा धर्म की रक्षा करना और इससे सम्बन्धित सर्व अधिकार अपने पास रखना यह पुरोहित का उद्देश्य था। याज्ञिक सस्कृति की यह मोनोपोली पुरोहित के पास ही रह गई थी, और उसकी रक्षा के लिये यज्ञ के विधि-विधान अत्यत जटिल और गूढ बनाये गये ताकि अन्य किसी व्यक्ति को इस रहस्य का पता आसानी से न चल सके । अनधिकारियो को पुरोहित

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