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प्राकृत के प्राचीन बोली विभाग वेद और प्राचीन संस्कृत साहित्य की परंपरा के निदर्शन के बाद प्राकृतसाहित्य की परपरा की आलोचना, और उसकी भाषाशास्त्र की दृष्टि से कुछ जांच करना आवश्यक है। प्रधानतया प्राकृतसाहित्य के दो मुख्य अंग है । बौद्ध साहित्य और जैन साहित्य । दोनो का ऊगम एक ही काल मे और एक ही स्थल मे होते हुए भी, उनकी विकासधारा अलग है ।
पालि साहित्य विपुल है । परपरा के अनुसार भगवान बुद्वके उपदेशो की तीन आवृत्तिया उनके निर्वाण के बाद २३६ साल तक हुई। ये तीन आवृत्तियां राजगृह, वैशाली और पाटलीपुत्र की परिपदो मे संपन्न हुई। इन आवृत्तियो की ऐतिहासिकता विवाद का विषय होते हुए भी, इनसे एक बात स्पष्ट है कि बुद्ध के उपदेशो को उनके अनुयाइयो ने दो तीन सदियो मे सकलित किये। इस सकलन मे मूल के अतिरिक्त भाव और भापा आ जाने की सभावना तो है, किन्तु उसके साथ यह भी तो मानना पडता है कि उपदेश की स्मृति विद्यमान थी, और मूल से ठीक-ठीक निकट ऐसा विश्वसनीय साहित्य सगृहीत हुआ।
इससे यह मानना पडेगा कि हमारे पास प्राचीनतम प्राकृत साहित्य के भाषा स्वरूप के अभ्यास के लिए ई० पू० की पाचवी सदी से लेकर महत्त्व की सामग्री विद्यमान है। अब, जब हम इस साहित्य को अन्वेषण की दृष्टि से देखते है तब उसकी भाषा के बारे मे अनेक तरह की शकाये पैदा होती है। परपरा के अनुसार, बुद्ध के उपदेश भिन्न-भिन्न विहारो मे, मठो मे, भिक्षुओ की स्मृति मे सचित थे। ये भिक्षुगण भी भिन्न-भिन्न प्रान्त के निवासी थे। परपरा के अनुसार दूसरी वाचना के समय दूर-दूर के प्रदेश के भिक्षु उपस्थित थे। अवन्ति कोशाम्बी, कन्नौज, साकाश्य, मथुरा, और वहाँ से आनेवाले भिक्षुओ की निजी भापा भी भिन्न भिन्न होगी। उत्तर और पश्चिम की बोलियों पूर्व से ठीक-ठीक भिन्न थी। विनय का जो सकलन किया गया, उसमे इन सब भिन्न-भाषी भिक्षुओ का अपना हिस्सा