Book Title: Prakrit Bhasha
Author(s): Prabodh Bechardas Pandit
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 58
________________ ( ५४ ) आर्येतर भाषाओ से उनको गति मिलती है। ध्वनितन्त्र के परिवर्तन से ही समग्र व्याकरणीतन्त्र मे पलटा आ जाता है। इस दृष्टि से जब विचार करते है तब भारतीय आर्य भाषाओ के विकास का दूसरा महत्त्व का तत्त्व दृष्टिगोचर होता है । वह है भारतीय आर्य भाषाओ की एकता । आर्य भापा भारत मे अनेक आर्येतर प्रजात्रो के बीच में विकसी, स्थिर हुई। इन आर्येतर भाषाओ मे कई भाषाये काफी विकसित थी, उनका साहित्य भी विद्यमान था। इतने विशाल देश मे आर्य भापा उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक फैल गई, और अनेक आर्येतर भाषाओ के गाढ़ सम्पर्क में आने पर भी हमको आर्य भाषा का इतिहास अविच्छिन्न रूप से मिलता है। उसकी एकसूत्रता हम स्पष्टता से प्रत्यक्ष कर सकते है । ऐसी एकता के उदाहरण समय इण्डोयुरोपियन गण मे, रोमान्स गण को छोड़कर कहीं भी मिलते नही । इतना अविच्छिन्न विकास किसी अन्य इण्डोयुरोपियन भाषा का मिलता नही । इसका कारण शायद वही होगा जिसकी हमने गर्हणा की है-शिष्टो का प्रभाव-उनके प्रयत्न से ही, शायद यह भापा छिन्न, विच्छिन्न नहीं होने पाई, एक तरह की एकता सुरक्षित रही। इस एकता ने भारतीय संस्कृति की एकता पैदा करने मे अपना हिस्सा दिया है। भारतीय भाषाशास्त्र के किन अगो का अनुसंधान अब आवश्यक है । उसकी आलोचना मुल व्लोख ने अपने 'फौंग लेक्चर्स' मे काफी की है, और इसमे कुछ कहने का रहा नही । किन्तु प्राकृतो को लक्ष्य मे रखकर, जैन साहित्य के अनुसधान मे हम क्या कर सकते है वह मै आपको कुछ सूचित करने का साहस करता हूं। पालि साहित्य का संशोधन श्रीमान और श्रीमती राइस डेवीस के प्रयत्ना से पाली टेकस्ट सोसाइटी द्वारा काफी हो चुका है । मूल ग्रंथो के संशोधित प्रकाशनो से पालि भाषा और साहित्य के संशोधन को वेग मिला । गाइगर का पालि भाषा और साहित्य, चाईल्डर्स का पालि कोश, मलाल सेकर का पालि विशेषनामो का कोश, और एन्डर्सन, हेल्मर स्मीथ, एजर्टन इत्यादि के पालि भाषा के विषय मे अनुसधान, इस सब प्रवृत्ति से पालि भाषा और साहित्य का अध्ययन आज संगीन हो गया है । मूल अथो के संशोधित प्रकाशन के बाद ही भाषाकीय वा सांस्कृतिक संशोधन सगीन हो सकते है ।

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