Book Title: Prakrit Bhasha
Author(s): Prabodh Bechardas Pandit
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 57
________________ ( ५३ ) बोली स्वरूप-एभि' को पुनर्जी न मिला और तृ ब व. के लिए -एहि का प्रचार हुअा। ___प्राकृत इकारान्त और उकारान्त (ह्रस्व दीर्घ-इ-ई-उ-ऊ के भेद प्राकृत मे मिट चुके है ) नामो के चतुर्थी और षष्ठी ए व. के प्रत्यय है -इणो, -उणो-इमिणो, भागुणो इ०। औ का ओ होते ही यहाँ सप्तमी और पष्ठी की अव्यवस्था होगी, इससे पालि मे तो यह सप्तमी बहुत जगह पर अव्ययो के लिए मर्यादित हो गई, जैसे आदो-आदौ, रत्तो-रात्रौ, प्राकृतो मे चतुर्थी षष्ठी का भी भेद नही, इसलिए अधिक भ्रम पैदा होने की सम्भावना थी इससे इकारान्त और उकारान्त नाम के चतुर्थी षष्ठी के प्रत्ययो के रूपाख्यान मे तृतीया की तरह -ण का आगम हो गया । ( देखो-वाकरनागेल, आल्तीन्दिश प्रामातिक 1II 41) अन्त्य व्यजन का नाश होते ही अमरान्त नाम के पचमी ए व. का रूप प्रथमा ब० व० के साथ ही टकरायगा, यह भ्रम टालने के लिए 'पंचमी के लिए पुराने सार्वनामिक प्रत्यया का आधार लिया गया । जैसे स्मात्- पालि वीरस्मा, प्राकृत वीरम्हा । अन्त्य व्यजन का नाश, और स्वरा के इन परिवर्तनो से पुरानी प्रत्यय व्यवस्था टूट पड़ी, और इससे अनेक प्रकार के post-pos1tions का विकास हुआ, जिसका महत्त्व ( morphological function ) वर्तमान भारतीय आय भाषा मे बढ़ गया है। इस तरह से व्याकरणीतन्त्र के परिवर्तन के बीज पड़े होते है ध्वनितन्त्र के परिवर्तन मे। आज तो समय भी नहीं है, और मेरी गुंजाइश भी इतनी नही, किन्तु वास्तर मे मध्य भारतीय आर्य भाषा का समग्र व्याकरणीतन्त्र को ध्वनितन्त्र के परि तन से समझना चाहिए । भाषा दृष्टि से अभी तक प्राकृतो का व्याकरण लिखा गया ही नहीं । यह कार्य भविष्य का है। यह कह कर मै इस बात पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि सस्कृत से प्राकृत मे, प्राचीन भारतीय आर्य से मध्य भारतीय आर्य मे, ध्वनि तन्त्र के जो परिवर्तन होते है, उनके बीज तो प्राचीन भारतीय आर्य मे ही मौजूद थे। कालक्रम से उनका विकास होता है,

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