Book Title: Prakrit Bhasha
Author(s): Prabodh Bechardas Pandit
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 28
________________ ( २४ ) भेद के विशिष्ट व्यजक हो सकते है ? शौरसेनी उच्चकुल की स्त्रियो और मध्यमवर्ग के पुरुषों की भाषा नही, किन्तु वह सूचक है मथुरा मे विकसित नटवर्ग की बोलचाल के शिष्ट प्रतीक की। पूर्व के लोक, मध्यदेश की अपेक्षा हमेशा असस्कृत और अशिष्ट माने जाते थे, इसलिए जिस पात्र को नीच मानना हो, जिसकी मजाक करने की हो उसके मुख मे मागधी रखना एक रूढि ही बन गई । प्राचीनतम नाटको मे, और खास करके अश्वघोप के नाटको मे उत्तरकालीन नाटको की अपेक्षा, अन्य प्रकार की प्रणाली दिखाई देती है । अश्वघोष के नाटक कुशानकाल की ब्राह्मी मे लिखे हुए मालूम होते है, और उनका समय है ई० का दूसरा शतक । इन प्राचीन नाटको की भाषाप्रणाली, उत्तरकालीन नाटको से कुछ भिन्न है । उत्तरकालीन नाटको मे अनुपलब्ध, कितु भरतविहित, नाटको की अर्धमागधी भी यहाँ प्राप्त होती है। यहाँ शौरसेनी, मागधी, अर्धमागधी के प्राचीन स्वरूपो का प्रयोग किया गया है। तदनन्तर, भास के नाटको मे प्राचीन प्राकृतो का व्यवहार मिलता है, और प्राकृतो का वैविध्य देखने को मिलता है शूद्रक के मृच्छकटिक मे, यद्यपि शूद्रक का प्राकृत भास से ठीक ठीक अर्वाचीन है। भारत के बाहर जो प्राकृते मिलती है उनसे एक विशिष्ट दिशासूचन होता है। नियप्राकृत के व्याकरण का स्वरूप अत्यत विकसित है । जो विकास अपभ्रश काल मे भारत मे होता है वह विकास ई० के दूसरे और तीसरे शतक के इस नियप्राकृत मे होता है । इन प्राकृतो का ध्वनिस्वरूप प्राचीन ही है, सिर्फ व्याकरण का स्वरूप अत्यत विकसित है। इससे अनुमान तो यही होता है कि भारत के साहित्यिक प्राकृत प्रधानतया रूढिचुस्त (conservative) थे, वैयाकरणो के विधिविधान से ही लिखे जाते थे, और संस्कृत को आदर्श रखकर केवल शिष्टस्वरूप मे लिखे जाते थे, किन्तु सस्कृत के प्रभाव से दूर जो प्राकृत लिखे गये वे अधिक विकासशील थे। प्राकृतो के अभ्यास मे हमे यह देखना होगा कि उसमे भी शिष्टता का प्रभाव कितना है, और हम तत्कालीन बोलचाल से कितने दूर वा निकट है। __प्राकृता के प्राचीनतम स्वरूप का खयाल पाने के लिए हमको साहित्यिक प्राकृत, लेखो के प्राकृत, नाटको के प्राकृत और भारत बाहर के प्राकृतो का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करना होगा, सब मे से अंशतः

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