Book Title: Prakrit Bhasha
Author(s): Prabodh Bechardas Pandit
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 41
________________ ( ३७ ) से और काल दृष्टि से । आगमो को प्राकृत विकसित प्राकृत है। उसका स्थान, प्राचीन की अपेक्षा मध्यकालीन प्राकृता के साथ है। प्राकृत भापाओ के विकास को भाषाइतिहास की दृष्टि से तीन वा चार खड गे विभाजित करते है। प्राचीनतम प्राकृत के उदाहरण अशोक के लेखो मे और पालि साहित्य के कुछ प्राचीन अशो मे मिलते है। इस काल की विशेपताए सक्षेप मे ये है-ऋऔर लू का प्रयोग खत्म होता है। ये औ, अय अव का ए, ओ, अत्य व्यजन और विसर्ग का लोप, इस अतिम प्रक्रिया से सब शब्द स्वरान्त होते है, और कुछ अविकृत रहते है । सयुक्त व्यजनो मे से कुछ ने सावर्ण्य होता है, और कुछ अविकृत रहते है विशेपत र युक्त, और कही कही ल युक्त । स्वरान्तर्गत व्यजनो का घोपभाव -जैसे क का ग- अपवादात्मक रूप से होता है, कि तु विरल है, यह अपवाद भाषा की भविष्य की गति का सूचक होता है । यह प्राकृतो की प्रथम भूमिका। दूसरी भूमिका के प्राकृतो मे निय प्राकृत, अश्वघोप के नाटको के प्राकृत, प्राकृत धम्मपद और खरोष्ठी लेखा की प्राकृते आती है। इस भूमिका मे स्वरान्तर्गत असंयुक्त व्यजनो का घोपभाव और तदनन्तर घर्पभाव होता है । घर्षभाव की प्रक्रिया नियप्राकृत मे स्पष्टता मिलती है । यह अवस्था शब्दान्तर्गत असयुक्त व्यजनों के संपूर्ण लास की पूर्वावस्था है। प्राचीन अर्धमागधी- आगमो की भापा से जो कुछ प्राचीन हिस्से मिलते है जैसे कि आचाराग और सूत्रकृताग के कुछ अश, इस भूनिका की अन्तिमावस्था मे आ सकते है। इस समय मे घोपसाव की प्रक्रिया सर्वसामान्य है, कि तु स्वरान्तर्गत व्यजनो का सर्वथा लोप नहीं होता, स्वरान्तर्गत महाप्राणो का ह भी सर्वथा नहीं होता। ___तीसरी भूमिका मे आते है साहित्यिक प्राकृत, नाटको के प्राकृत, और वैयाकरणो के प्राकृत । इन प्राकृतो मे अन्यान्य वोलियो के कुछ अवशेप रह जाते है, कि तु इनका स्वरूप केवल साहित्यिक ही है। उस भूमिका मे स्वरान्तर्गत व्यजनो का सर्वथा ह्रास होता है, और महाप्राणों का सर्वथा ह होता है । मूर्धन्यो का व्यवहार वढ जाता है। चौथी भूमिका के प्राकृत - अन्तिम प्राकृत - को हम अपभ्रश कहते

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