Book Title: Prakrit Bhasha
Author(s): Prabodh Bechardas Pandit
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 48
________________ अश उपलब्ध है उनसे मालूम होता है कि ये भी आम जीवन से काफी इन सब हकीकतो से प्रश्न उठता है हमारे पास बोलचाल की भाषा के प्राचीन नमूने कितने है ? अगर कहा जाय कि अशोक के शिलालेख और जैनो तथा बौद्धो के धार्मिक ग्रथों को नमूने के तोर पर गिन सकते है तो उनमें भी अशोक के शिलालस्य नियत वाक्य र पना (rigid syntax ) के ही है, और इस सब माहित्य का आदर्श तो सस्कृत ही रहा है और उसी शिष्ट रास्कृति की हग उन पर टिगोचर होती है।" 'भापा विज्ञान का एक सिद्धात है -मापा शून्य में विकसती नहीं। कमो भी भाषा अय मापाए और समाज से ससग गे ही बढ़ती है। 'शुद्ध' भाषा जैसा कुछ नहीं, जैसे "शुद्ध प्रजा जैसा कुछ नहीं । प्रथग व्याख्यान में ही मैने बताया है कि जिसको हम आर्य भापा, आर्य भाषा गण, इण्डो युरोपियन, आर्य ईरानी, आर्य भारतीय इत्यादि अभिधान लगाते है वे सिर्फ सहुलियत के लिए है। सिर्फ लवल है। नये नाम प्रचलित न होने से हम ये पुराने नाम इस्तेमाल करते है। अभी तो Indo-Iranian, Indo Aryan की जगह सिर्फ Irandi, Indian ऐसे अभिधान इस्तमाल करने का मौका आ गया है । हम अब जानते है कि इस भाषा का व्यवहार करने वाले सिर्फ 'आर्य' कभी ये नहीं। अमुक भापा का व्यवहार करने वाला एक पगलमूह था, और इस जनसमूह की भापा को हम आर्य भाषा कहते है । यह शृलना न चाहिये कि उस जनसमूह मे हमेशा अनेक तरह की जातियों की वस्ती होगी। आर्यों के आगमन के पूर्व भारत मे अनक तरह की आर्येतर गगाएँ विद्यमान थी। उनके आगमन काल में पश्चिम मे और दक्षिण म और हिरोदोतम के आधार पर-योक -दिड्इ, सस्कृत, दम्यु फारसी-बिह 'वसाहती प्रदेश”-दर उत्तर में भी द्राविडो की वस्ती थी, मध्य में मुन्डा और पूर्व मे सीनोतिवेटन भापाए विद्यमान थी। इन सन पर, क्रमश आर्यों का प्रभुत्व बढ़ता गया। इस प्रवृत्ति का स्वाभाविक परिणाम यही हो सकता है कि इन तलभापायों के( ubstratum lamruages) अनेक तत्त्व आर्य भाषा गण में सम्मिलित हो गये होंगे। प्राचीन संस्कृत मे भी इन आर्येतर तत्त्वो की खोज ठीक ठीक आगे बढ़ी है । सिलवा लेव्हि, मा प्रिझुलस्की औरल झु ब्लोख के निबंध सग्रह

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