Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Author(s): Tribhuvandas Laherchand Shah
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 39
________________ महाराज सम्प्रति के शिलालेख इसके बदले यदि हम सेंडू कोट्स को अशोक ७ मान लें (जैसा कि हम ऊपर सिद्ध कर चुके हैं) तो सब बातों का ठीक सिलसिला जम जाता है। (१५) शिलालेखों के नीचे में शब्द जहाँ-तहाँ काम में लाए गए हैं, इनसे सिद्ध होता है कि इनका कर्ता चुस्त बौद्ध (अशोक ) होने की अपेक्षा अधिकांश में कट्टर जैन ही होना चाहिए (प्रियदर्शिन उर्फ संप्रति )। - (अ) अनारंभ (शिलालेख नं. ३, गिरनार के लेख, इंडि० ऐंटि० पुस्तक ३७, पृ. २४) जैन धर्म में सांसारिक कार्य का प्रारम्भ करने के लिये हमेशा प्रतिवन्ध किया गया है। क्योंकि इस समग्र कार्य में हिंसारूप पापकर्म का जो उपार्जन होता है, उसका भोक्ता आदि प्रवर्तक ही माना जाता है और हिंसा से निवृत्त होना ही जैन धर्म का प्रथम सूत्र है। (ब) मंगलं+धर्म उपसर्ग=धर्ममंगलं (शि० ले० नं. ६) -ये दोनों शब्द अलग-अलग या एकत्र रूप से जैन धर्म में स्तुति, पद, संझाय अथवा सूत्र के अन्त में सामान्य रूप से काम में आते हैं और कहीं-कहीं शुभ शकुन के रूप में प्रारम्भ में भी इनका उपयोग किया गया है । (८७) ऊपर के पैरा नं. १४ के वर्णन से तुलना करने पर तथा उससे संबद्ध पादटीका से सेंड्र कोट्स ही अशोक है, यह बात सिद्ध हो सकेगी। (८७ अ) देखिए, इस लेख का अन्तिम फुटनोट । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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