Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Author(s): Tribhuvandas Laherchand Shah
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 45
________________ महाराज सम्प्रति के शिलालेख (१८) सांप्रत काल में जिस प्रकार मनुष्य-कल्याण के लिए औषधालय और पशु-कल्याण के लिए पिंजरापोल खुले हुए है, उसी प्रकार की द्विविध संस्थाएँ राजा प्रियदर्शिन् द्वारा स्थापित की जाने का उल्लेख जिस शिलालेख में मिलता है, वह भी यही सिद्ध करता है कि अशोक ( अथवा शिलालेख का कर्ता) स्वतः बौद्ध नहीं वरन् जैन ही था और जो साहित्य आज बौद्ध धर्म में अस्तित्व रखता है, उसके अनुसार अशोक का चरित्र भी इस तरह का नहीं है। इसलिये यह बात निर्विवाद सिद्ध होती है कि वे सब कृतियाँ अशोक की नहीं, वरन् अन्य पुरुष और वह भी जैन धर्मानुयायी प्रियदर्शिन् की हैं। (१६) देवविमान हस्थिन् अग्निस्कंध आदि के दृश्य९८ प्रजा को आनन्द देने के निमित्त राजा प्रियदर्शिन् ने दिखाने की व्यवस्था की थी९९ । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि जिन १४ स्वप्नों की बात हम ऊपर (पैरा नं०१४ में) दिखला चुके हैं, उन्हीं से यह सम्बन्ध रखती है। जिस प्रकार श्रावकों को उसके दर्शन कराए जाते हैं, उसी प्रकार राजा प्रियदर्शिन् ने भी सारी प्रजा का उसका दर्शन कराने की योजना की होगी। इसमें भी दो उद्देश्य गर्भित जान पड़ते हैं। प्रथम तो यह कि लोगों का मनोरंजन हो और समय का सदुपयोग हो सके तथा (१८) चौदह स्वप्नों के नाम ( कल्पसूत्र-सुखबोधिनी टीका, पृ० १०)-हाथी, वृषभ (बैल ), सिंह, लचमी माता, पुष्पमाला, चन्द्र, सूर्य, ध्वजा, कलश, पद्मसरोवर, समुद्र (क्षीरसागर ), विमान अथवा भुवन, रत्नराशि तथा अग्निशिखा (इस पर टीका नं.५ देखिए)। (१६) देखिए, शिलालेख नं. ४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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