Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Author(s): Tribhuvandas Laherchand Shah
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 63
________________ महाराज सम्प्रति के शिलालेख किया जाता है अर्थात् प्रियदर्शिन् के सम्बन्ध में जिस प्रकार अशोक के सम्बन्ध में भी वह काम में लाया जा सकता है। किंतु इससे यह सिद्ध नहीं हो सकता कि प्रियदर्शिन् ही अशोक था । हाँ, यदि “देवाणां प्रिय प्रियदर्शिन् अशोक" इस प्रकार के शब्द होते तो वह अवश्य ही अशोक सिद्ध हो सकता था। दूसरी दलील यह है कि अशोकस्य शब्द षष्ठी विभक्ति में लिखकर...... जगह खाली छोड़ दी है। [इसके समर्थन में निम्न वर्णन उपयोगी हो सकता है। जिस प्रकार मैं "अशोस्य" शब्द को षठी विभक्ति के रूप में मानता हूँ, उसी प्रकार श्री राधाकुमुद मुकर्जी भी अपनी "अशोक" नामक पुस्तक के पृष्ठ १२ में लिखते हैं"of His Gracious Majesty Asoka" ये शब्द उन्होंने अनुवाद करते समय लिग्वे हैं । ] इससे जान पड़ता है कि कोई दूसरा शब्द और भी लिखना शेष होना चाहिए'२८ । अथवा लिखा गया हो, 'अशोकस्स' षष्ठी विभक्ति के बदले यदि 'अशोक' के रूप में प्रथमा विभक्ति का उपयोग किया जाता तो शंका का निराकरण हो जाता। [वे उपयुक्त लेख के ही सम्बन्ध में आगे चलकर फिर कहते हैं कि-It indicates that it was drafted and incised by the local authorities in commemoration of the Emperor's visit and gifts to the place and out directly by the Emperor, like most other edicts दे० रा. भंडारकर कृत अशोक, पृष्ठ ७)। इस तिस्सा का राज्य ई० पू० २४७ से २०७ तक था, जो अशोक (संप्रति )का समयवर्ती था (प्रिंसेप्स इंडि० ऐंटिक्विटीज पु० २, पृ० २६५ )। उसका समय ई० पू० ३०७२०७ दिया है। नोट नं०१ से मिलान कीजिए। . (१२८) कदाचित् "अशोकस्य पौत्र राजा प्रियदर्शनम्। लिखना उद्दिष्ट हो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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