Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Author(s): Tribhuvandas Laherchand Shah
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 44
________________ E८ प्रा० जै० इ० दूसरा भाग main भगवान, धर्म और संघ के प्रति भक्तिभाव प्रकट करनेवाला लिखा है। जिस प्रकार बौद्ध धर्म में त्रिपदी का स्वरूप वर्णन किया गया है, उससे भले ही कछ विद्वान् इस अर्थ से सहमत हो सकते हों, किन्तु यदि यही अर्थ किया जाता हो तो उसी लेख में आगे की पंक्तियों से उसका सम्बन्ध क्यों नहीं जुड़ता? साथ ही शिलालेखों एवं स्तंभलेखों में जिस धर्म का निरूपण है वह किसी भी रूप में बौद्ध धर्म नहीं हो सकता। इस प्रकार डा० फ्लीट को अन्त तक विश्वास था, क्योंकि उनमें कहीं भी "बुद्ध" शब्द लिखा हुआ देखने में नहीं पाता। इसी प्रकार "संघ" शब्द भी केवल एक ही बार आया है, और वह भी ऐसे एक तरफ कोने में कि जिसे इतना महत्त्व ही नहीं दिया जा सकता। जैसी त्रिपदी का ऊपर निर्देश किया गया है, वैसी ही जैन संप्रदाय में भी "सुदेव, सुगुरु, सुधर्म" इन तीन तत्त्वों से बनी हुई रत्नत्रयम्' कहलाती है। साथ ही सम्यक् दर्शन-सम्यक्त्वप्राप्ति = बोधि-चीज की प्राप्ति के लिये प्राथमिक आवश्यकता या पहली सीढ़ी के रूप में उसकी गणना की गई है। (१७) प्रो हुल्टश साहब की यह धारणा है कि स्तंभलेख ९७ नं०३ में जो मलिन विकृति के स्वरूप और मनोविकार तथा श्राव [(पाप) आसि नवगामिनी जातम् ] की टिप्पणी दी गई है, उसका और बौद्ध धर्म में वर्णित 'आसिव' एवं 'क्लेश' का कोई मेल नहीं बैठता। (६७) देखिए इंस्क्रिपशन कारपोरम् इंडिकेरम् पुस्तक प्रथम, जैनधर्म में १८ पाप स्थानक वर्णन किए गए हैं-(१ प्राणातिपात, २ मृषावाद, ३ अदत्तादान, ४ मैथुन, ५ परिग्रह, ६ क्रोध, ७ मान, ८ माया, ६ लोभ, १. राग, ११ दुष, १२ कलह, १३ अभ्याख्यान, १४ पैशुन्य, १५ रतिअरति, १६ पर-परिवाद, १७ मावामृपावाद, १८ मिथ्यात्वशल्य ।) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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