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महाराज सम्प्रति के शिलालेख अशोक इसे सुनकर बड़े दुखी हुए और अपनी भूल पर पछताने लगे।
इधर कुणाल के अन्धा हो जाने से राज्यगद्दी पर उसका अधिकार न रह सका । वयस्क होने पर उसका विवाह भी कराया गया और अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिये उसने संगीत कला का अभ्यास प्रारंभ किया। कुछ ही समय में वह संगीत-विशारद हो गया। ठीक उसी अवधि में उसके यहाँ पुत्र का जन्म हुआ। अतएव अपनी धाय माता (धात्री) की सलाह से (जो जन्मदात्री माता की प्रसूतावस्था में स्वर्गवासिनी हो जाने से कुणाल के द्वारा जन्मदात्री माता के समान हो सम्मानित होती थी) उसने सम्राट अशोक के पास जाकर अपने संगीत द्वारा उसे रिझाकर 'वर' माँगने का अवसर आने पर अपने बालकुमार के लिये काकिणी-राज्य माँगने का निश्चय किया और वह पाटलिपुत्र की ओर चल दिया। यथासमय उसने वहाँ पहुँचकर प्रथमतः अपने संगीत द्वारा सबके चित्त को हरण कर लिया। यह समाचार महाराज के कानों तक पहुँचा और उनके चित्त में संगीत सुनने की इच्छा हुई । किन्तु उस समय यह प्रथा थी कि राजपुरुष स्वयं किसी अन्धे व्यक्ति को अपने सामने बुलाकर उसका संगीत नहीं सुन सकता था । अतएव उसे पर्दे की आड़ में बिठलाकर संगीत सुनने का निश्चय किया गया। गायक के मधुर स्वर एवं संगीत-ज्ञान से सम्राट बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने वर माँगने को कहा। फलतः उसने वर में "काकिणी" माँगी। महाराज समझे कि यह काँच का टुकड़ा माँगता है; क्योंकि इस शब्द का सामान्य अर्थ यही होता है। किन्तु जब वहाँ एकत्र समस्त राजपुरुषों और कर्मचारियों ने बतलाया कि वह राज्य (काकिणी का वास्तविक अर्थ.) माँग
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