Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Author(s): Tribhuvandas Laherchand Shah
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 48
________________ प्रा० जै० इ० दूसरा भाग भांडारकर कहते हैं कि १०० इस विचित्र 'सिन' शब्द (स्तंभलेख नं० ३ ) का अर्थ क्या होगा । सेनार्ट साहब ने उसे 'पाप' शब्द के साथ जोड़कर क्यों लिखा होगा ? बौद्ध दर्शन - शास्त्र में पाप और आश्रव इन दो शब्दों का भेद कहीं भी बतलाया नहीं गया । इसी प्रकार प्राण और भूत के बीच का भेद भी कहीं वर्णन नहीं किया गया है । किन्तु जैन दर्शन में इन सब शब्दों के बीच का अन्तर भली भाँति समझाया गया है। साथ ही 'जीव' और 'सत्त' विषयक भेद भी समझाया गया है । इससे स्पष्ट प्रकट होता है कि ये सब शब्द जैन-साम्प्रदायिक हैं और इसलिये इनका लिखवानेवाला जैन होना चाहिए । ४२ (२३) प्रो० हुल्ट्श साहब यों निवेदन करते हैं कि बौद्धमत की तत्वद्या में देवविद्या और आत्मविद्या-विषयक जो विकासक्रम बतलाया गया है, उसमें और शिलालेखों की लिपि में 'धम्मपद' ११०८ विषयक जो विकासक्रम लिखा गया है अत्यधिक अन्तर है । उनमें 'निर्वाण' के सदृश कोई सिद्धान्त ही दृष्टिगोचर नहीं होता । किन्तु इस संसार में अच्छे कार्य किए जाने से उनके फल-स्वरूप दूसरे जन्म में विशेष सुख १०९ मिलने विषयक हिन्दू धर्म का जो सामान्य सिद्धान्त है, उसी से मिलता ( १०७ ) देखिए, दे० रा० भांडारकर कृत " अशोक" नाम की पुस्तक, पृष्ठ १२७, १२८, १३० । ( १०८ ) कोर० इंस्क्रिप्शन् इडिके०, पु० १ ( अशोक के शिलालेख ), पृ० XLVII. ( १०३ ) देखिए, शिलालेख नं० ६, १०, ११ और १३; धौली के लेख नं० १ और २; स्तंभलेख नं० १, ३, ४ और ७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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