Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Author(s): Tribhuvandas Laherchand Shah
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 52
________________ ४६ प्रा० जै० इ० दूसरा भाग लिये रवाना हुए। कुएँ बनवाए, धर्मशाला और दानशाला आदि स्थापित कीं, अनेक मन्दिर निर्माण कराए, जैन बिम्बों को भराया और अंजन - शलाका कराई । इसी प्रकार अनेक शुभ कार्य सम्पन्न किए । इन सब बातों के लिए किसी प्रकार के प्रमाण या टीका अथवा स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं जान पड़ती । शिलालेखों में लिखित समस्त वर्णन से भी उसका समर्थन होता दिखाई देता है | ११९ ( शिलालेख नं० ८ में ) उनके राज्याभिषेक के बाद नवें वर्ष आठ व्रत ग्रहण करने की बात लिखी है। इससे पहले एक वर्ष तक वे संघ के साथ रहे और इसके पूर्व ढाई वर्ष उन्होंने उपासक के रूप में व्यतीत किये थे । अर्थात् उन्होंने राज्याभिषेक होने के ( १० वर्ष में से १ + २३ = ३३ घटाने पर शेष ६ || वर्ष ) ६ || वर्ष बाद जैनधर्म में प्रवेश किया था । आगे चलकर फिर उनकी जीवनी के विषय में लिखा है. कि १२० उन्होंने अपनी युवावस्था में भारत के समस्त राजाओं को करदाता बना दिया; और अष्टक के निकट आकर सिन्धु नदी पार करने के बाद अफगानिस्तान के मार्ग से ईरान, अरब और मित्र आदि देशों १२१ पर अधिकार किया और उनसे ( ११ ) श्रावक के बारह व्रत हैं । उनमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत होते हैं । किन्तु इनमें शिक्षा व्रत ही ऐसे 1 हैं जिनका पालन सांसारिक गृहस्थों से भलीभाँति हो सकता है । राज्यकर्ता के लिए दुस्साध्य होने से सम्प्रति ने आठ ही व्रत ग्रहण किए थे । ( १२० ) उपर्युक्त ग्रन्थ की टीका नं० ११७ देखिए । ( १२१ ) इसी लेख के पैरा नं० ७ और नं० २३ से मिलान कीजिए । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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