Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Author(s): Tribhuvandas Laherchand Shah
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

View full book text
Previous | Next

Page 40
________________ प्रा० जै० ० इ० बूसरा भाग (क) देवनप्रिय '७ ( सभी लेखों में लिखा गया है ) – इस शब्द का उपयोग बहुधा जैन साधु महाराज, किसी भक्त जन को ( श्रेष्ठि या राज्यपरिवार अथवा कोई उच्च पदाधिकारी हो तो तो ) उपदेश देते अथवा संबोधन करते समय ही सामान्य रूप से हमेशा करते आए हैं और आज भी करते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ( उ ) स्वामिता ( गिरनार लेख नं० ३ ) - प्रो० पीटर्सन साहब ने इसका अर्थ स्वजातिजन की रक्षा करना किया है, जिसे 'स्वामिवात्सल्यता' का नाम दे दिया गया है। जैन सांप्र• दायिक शास्त्रों में जिन इनी गिनी वस्तुओं को विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ है उनमें इस "स्वामिवात्सल्यता" का भी समावेश किया जा सकता है । इससे भी यही पता लगता है कि उनका लिखानेवाला जैन ही है। दूसरे इस शब्द का अस्तित्व भी बौद्ध धर्म में संभव नहीं है । क्योंकि उनमें तो भिक्षुक ( monk ) और भक्षिका ( Nun ) इन दोनों का मिलाकर 'द्विविध संघ " ही है । अर्थात् जब श्रावक और श्राविका तो उनमें हैं ही नहीं, तो फिर 'स्वामिवात्सल्यता' किस प्रकार संभव है ? 'मूलं नास्त कुतः शाखा' ? जब जैन धर्म में तो चतुर्विध संघ कहा है (जिनमें साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इन चारों का समावेश होता है ) । ( ८७ ब ) पति-पत्नी भी एक दूसरे को संबोधन करते समय 'देवानांप्रिय' और 'देवानुप्रिये' शब्द का उपयोग कर सकते हैं । (देखिये, कल्पसूत्र की सुखबोधिनी टीका, पृष्ठ ४७ ) । (८) देखिये, "भावनगर के प्राचीन तथा संस्कृत शिलालेख " नामक पुस्तक | :) (८) इस त्रुटि युक्त संगठन के कारण ही ( श्रावक-श्राविकाओं www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82