Book Title: Pandita Todarmal Vyaktitva aur Krititva
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 11
________________ धारण करता है, इसलिए वही धर्म है ! दूसरा उत्तर है कि विश्व अपने भाव में अनादि-प्रवाह नहीं है, उसका कोई न कोई उद्गम है, कोई न कोई महाअस्तित्व है, जिससे सृष्टि का उद्गम हुआ है । इश्य विश्व उसी की परिणति है। यह महाअस्तित्व ईश्वर है। हम विश्व को एक प्रवाह मानें या ईश्वर की कृति, इसमें मतभेद हो सकता है किन्तु विश्व के अस्तित्व में कोई मतभेद नहीं है। हम सब अपने अस्तित्व को मात्र बनाए ही नहीं रखना चाहते, प्रत्युत उसे अधिक सुविधायुक्त और परिष्कृत भी करना चाहते हैं । यह मनुष्य ही कर सकता है, दूसरे प्राणी नहीं, क्योंकि उसके पास सोचने-समझने की शक्ति है, यह विषेक ही उसकी सब से बड़ी संपत्ति है । मूल प्रवृत्तियों और धर्म आहार, निद्रा, भय और मैथुन - ये प्रवृत्तियाँ हीनाधिक रूप में सभी प्राणियों में पाई जाती हैं। केवल विवेक ऐसी विशेषता है जो दूसरों के पास नहीं है। अतः मनुष्य के सन्दर्भ में धर्म का अर्थ है - उसका विवेक । यह विवेक न केवल मनुष्य को लौकिक प्रगति के लिये प्रेरित करता है बल्कि उसे आध्यात्मिक प्रगति के लिए भी प्रेरणा देता है। यह उसे स्व के सीमित घेरों को तोड़ कर एक व्यापकतर अनुभूति के क्षेत्र में ले जाता है । व्यापकतर अनुभूति के लिये ध्यापक सम्भावना की अनुभूति बहुत आवश्यक है । अनीश्वरवादी जीवमात्र में विद्यमान अन्तःसमानता के अाधार पर व्यापकता को • खोजते हैं, जब कि ईश्वरवादी व्यापक एकता के प्राधार पर । मनुष्य और धर्म धर्म मनुप्य जीवन की व्यापक अनुभूति है जो उसकी विशेषता भी है और आवश्यकता भी, परन्तु जीवन का रथ प्रवृत्ति और निवृत्ति के पहियों पर घूमता है । जीवन में कोई न तो सर्वथा प्रवृत्तिवादी हो सकता है और न निवृत्तिबादी। दुर्भाग्य से यह भ्रान्ति गहरी जड़ पकड़ चुकी है कि अमुक धर्म प्रवृत्तिवादी है और अमूक धर्म निवृत्तिवादी । वस्तुतः प्रवृत्ति और निवृत्ति एक ही सिक्के के दो पहलु हैं, एक का सम्पूर्ण निषेध कर हम दूसरे का भी बहिष्कार कर देंगे और जीवन लूला-लंगड़ा बन जायेगा।

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