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आत्म निवेदन .
जैन दर्शन में आत्मा का स्वरूप 'ज्ञान' और 'दर्शनमय' माना गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में लिखा हैं जीवो उवओग लक्खणो। अर्थात उपयोग लक्षण वाला जीव आत्मा कहा जाता हैं। उपयोग को ज्ञान और दर्शनमय कहा गया हैं। इसी का और विस्तार करते हुए आगे कहा कि आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, और उपयोग लक्षण वाला हैं
नाण च दंसणं चेव चरित्त च तवो तहा।। वीरियं उवओगोय एवं जीवस्स लक्खणं।।
उत्तराध्ययन २८/११ भगवान महावीर की स्तुति करते हुए उन्हें अनन्त ज्ञानी और अनन्त दर्शन सम्पन्न कहा है।
अनन्तं नाणीय अनन्त दंसी।। इसका अभिप्राय हैं कि आत्मा अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन से सम्पन्न हैं तथापि वह अनादि काल के संसार परिभ्रमण के कारण अपने स्वरूप से अनभिज्ञ बना हुआ है और विविध वि०तियों से आवृत्त हुआ
- श्रुतज्ञान ही उन विकारों के आवरणों को जलाने वाला महातेज पुञ्ज है। मुक्ति सौध पर चढने के लिए श्रुतज्ञान सोपान है संसार सागर से पार होने के लिए सेतु हैं, आत्मा को स्वच्छ एवं निर्मल करने के लिए विशुद्ध जल हैं। चिर काल व्याप्त मोहविष को उतारने वाला यह जिन वचन रूप पीयूष हैं, जो कि जन्म जरा मरण, विविध आदि व्याधि को हरण वाला अमोध औषध हैं। सर्व दुःखों को ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक क्षय करने वाला यदि विश्व में कोई ज्ञान है तो वह आगम ज्ञान ही है नन्दीसूत्र में उपर्युक्त सभी औषधि उपलब्ध होती है। इसीलिए जैन परम्परा में इसका नित्य स्वाध्याय करने का प्रचलन है।
मुनि का लक्षण बताते हुए कहा है कि "नाणण य मुणी होइ" ज्ञान से ही मुनि होता है। नन्दीसूत्र में ज्ञान का ही विवेचन है। इसीलिए इसे मूल आगमों में रखा गया है। मूल के साथ अर्थ भी हो और विवेचन भी तो उस ज्ञान को आत्मसात करने में जिज्ञासु को सुविधा रहती है, इसीलिए असीम ज्ञान भण्डार के स्वामी पूज्य आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज ने इस पर विस्तृत हिन्दी टीका लिखी, जो हमारे ऊपर उनका महान उपकार हैं। उनके द्वारा लिखित टीका का सम्पादन कर नन्दीसूत्र को प्रकाशित कराया था पूज्य उपाध्याय श्रमण श्री फूलचन्द जी महाराज ने। वह संस्करण वर्तमान में अनुपलब्ध था और पाठकों की मांग निरन्तर बढ़ रही थी।
दिल्ली पंजाबी बाग निवासी अनन्य धर्मानुरागी सदगृहस्थ श्री श्रीचन्द जी जैन बन्धु ने मेरे सामने यह प्रस्ताव रखा कि आचार्य सम्राट पूज्यवर श्री आत्माराम जी महाराज द्वारा कृत हिन्दीटीका वाला नन्दीसूत्र पुनः प्रकाशित होना चाहिए। मैंने इस विषय पर चिन्तन किया और पूज्य श्री आत्माराम कुल कमल दिवाकर श्री रत्नमुनि जी महाराज को पत्र लिखा। उनका पत्र प्राप्त कर मेरा उत्साह बढ़ा । उन्होने जो अपनत्व पूर्ण पत्र लिखा उसका कुछ अशं यहां उद्धत कर रहा हूँ "नन्दीसूत्र की मांग तो हैं पर विवशता। आप यदि श्री नन्दी जी का प्रकाशन करा सके तो यह आपकी श्रुत सेवा के साथ भगवत शासन की भी सेवा हैं । आप द्रव्य क्षेत्रकाल को समक्ष रखते हुए पुरूषार्थ कर पायें तो हर्ष है।"
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