________________
के समय, निधान खोलते समय और विद्या आरम्भ के समय, मंगलाचरण अवश्य करना चाहिए। उत्कृष्ट भावों से किया हुआ मंगलाचरण निष्फल नहीं जाता, यह एक निश्चित सिद्धान्त है ।
नदीसूत्र का माहात्म्य
कोई भी व्यक्ति निष्प्रयोजन चेष्टा नहीं करता और न उस ओर किसी की प्रवृत्ति ही होती है । अतः नन्दी सूत्र के अध्ययन करने से जीव को किस गुण या फल की प्राप्ति होती है ? इसका उत्तर सूत्र का पुनीत नाम ही दे रहा है, जो शास्त्र परमानन्द का कारण हो, उसे नन्दी कहते हैं । आनन्द दो प्रकार का होता है। १. द्रव्य आनन्द और २. भाव आनन्द इन्हीं को दूसरे शब्दों में लौकिक और लोकोतरिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक अथवा भौतिक और आध्यात्मिक आनन्द भी कहते हैं। इनमें पहली कोटि का आनन्द औदयिकभाव में अन्तर्भूत हो जाता है किन्तु दूसरी कोटि का आनन्द कर्मजन्य या उदयनिष्पन्न नहीं है, वह वस्तुतः आत्मा का निजगुण है इनमें द्रव्य आनन्द, अल्पकालिक और बहुकालिक इस प्रकार दो तरह का है ।
।
अल्पकालिक द्रव्यानन्द क्षणमात्र से लेकर उत्कृष्ट करोड़ पूर्व तक रह सकता है तथा बहुकालिक द्रव्यानन्द उत्कृष्ट ३३ सागरोपम पर्यन्त रह सकता है। इस आनन्द का आधार बाह्यद्रव्य है। बाह्यद्रव्य निमित्त है, उपादान कारण औदयिक भाव है, इस कारण वह साथि सान्त आनन्द कहलाता है। भावानन्द में औदविक भाव की मुख्यता नहीं होती, इस कारण वह भी दो प्रकार का होता है१. सादि-सात और २. सादि-अनन्त जब तक सम्यग्दृष्टि जीव आतं एवं रौद्र ध्यान से ओझल रहता है, तब तक भाषानन्द चालू ही रहता है औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव में सम्यग्दर्शन तथा सम्यक् चारित्र का जब लाभ होता है, तब अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है। वह आनन्द सादि सान्त कहलाता है, किन्तु जब बारमा पूर्णतया क्षायिक भाव में पहुंचता है, तब वही आनन्द सादि-अनन्त बन जाता है ! सादि - अनन्त गुण आत्मा में सदैव एक रस रहता है ।
।
नन्दीसून पांच ज्ञान का परिचायक होने से श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक है। अतः तज्जन्य आनन्द भी क्षायोपशमिक होने से सांदि-सान्त है. किन्तु इसके द्वारा सादि-अनन्त आनन्द की ओर प्रगति होती है। जब वह आनन्द निःसीम हो जाता है, तब समझ लेना चाहिए कि अपूर्ण आनन्द की पूर्णता हो गई है। उस अनुपम, अविनाशी, सदाकाल. भावी एक रस को नित्यानन्द भी कहते हैं। नदीसूत्र अद्भुत चिन्तामणि रत्न है जो कि द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के आनन्द का असाधारण निर्मित कारण है, क्योंकि स्वाध्याय करने से शुभ भाव उत्पन्न होते हैं, उससे पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है। पुण्य इम्ब-आनन्द का कारण है। यदि स्वाध्याय करते हुए भावों की विशुद्धि हो रही हो, तो वह निर्जरा का कारण है, निर्जरा से कर्म भार उतरता है। आत्मा ज्यों-ज्यों कर्मों के भार से हल्का होता जाता है त्यों
अपूर्ण आनन्द पूर्णता की ओर बढ़ता जाता है ।
श्रुतज्ञान आत्मा को स्वस्थ बनाने वाला है। श्रुतज्ञान ही विकारों को जलाने बाला महातेजपुंज है मुक्ति सोच पर चढ़ने के लिए श्रुतज्ञान सोपान है, संसार सागर से पार होने के लिए सेतु है, आत्मा को स्वच्छ एवं निर्मल करने के लिए विशुद्ध जल है। जिनवाणी दिव्य अनुपम एवं अद्भुत ओषधि है, जो भवरोग या कर्म रोग को सदा के लिए नष्ट कर देती है, यह वैषयिक सुख का विरेचन करने वाली दवा है। चिरकाल व्याप्त मोहविष को उतारने वाला यह जिन-वचनरूप पीयूष है जोकि जन्म जरा मरण, विविध