Book Title: Mahadev Stotram
Author(s): Hemchandracharya, Sushilmuni
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandiram Sirohi

View full book text
Previous | Next

Page 149
________________ सञ्चितप्रारब्धकर्माणां क्षयाच्चेति । दारादिपरिग्रहशत्र ु निग्रहादि सद्भावाद् नत्वन्यो देवो वीतरागः, विश्वे सर्वस्व - विशुद्धत्वात् सर्वोत्तमोऽर्हन्न वेति । शिवं कल्याणं । इच्छता: श्रभिलषता । तस्य = वीतरागस्य निर्मलस्याऽर्हतो देवस्यैव । नमस्कारः = प्ररणामः । कर्तव्यः = विधेयः । राग-द्वेषादिमांस्तु स्वयमशिव इति तस्य नमस्कारो न तु शिवाय भवितुमर्हति । तस्मात् कथितमाह- "भ्रान्तस्तीर्थानि दृष्टस्त्वं मयैकस्तेषु तारकः । तत् तवाऽङ्घ्रौ विलग्नोऽस्मि, नाथ ! तारय तारय ।। " इति भावः ।। ३= ॥ पद्यानुवाद जो पुण्य-पापथकी सदा सर्वदा ही निर्मुक्त है, तथा राग-द्वेष से भी सदा सर्वथा वर्जित है । ऐसे जिनेश्वर देव को नमस्कार करना योग्य है : मोक्षाभिलाषी जीव ने मोक्षदायक वही है || ३८ ॥ 1 शब्दार्थ अर्हन् = अरिहन्त जिनेश्वर देव - तीर्थकर परमात्मा । रागद्वेषविवर्जित= राग और द्वेष से रहित हैं अर्थात् वीतराग हैं । इसलिये, पुण्यपापविनिर्मुक्तः = पुण्य तथा पाप से रहित अर्थात् मुक्त हैं । अतः, शिवम् मोक्ष - = Jain Education International श्री महादेवस्तोत्रम् - ११२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182