Book Title: Mahadev Stotram
Author(s): Hemchandracharya, Sushilmuni
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandiram Sirohi

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Page 174
________________ अरिहन्तपद की भावना हे अरिहन्त परमात्मन् ! आप तीन लोक के नाथ हो, विश्ववन्द्य और विश्वविभु हो, विश्व का कल्याण करने वाले हो, देव-देवेन्द्रों से पूजित हो, दुस्तर संसार-सागर से तारने के लिए महानिर्यामक हो, भयंकर भवाटवी से पार करा कर मुक्तिपुरी में पहुँचाने के लिए महासार्थवाह हो, सारे जगत में अहिंसा के परम प्रचारक होने से महामाहरण हो. विश्व के पशुप्रायः प्राणियों की रक्षा करने के लिए महागोप हो, स्वयं सम्बुद्ध हो, पुरुषोत्तम हो, लोकोत्तम हो, सिंह के समान निर्भय हो। आप उत्तम श्वेतकमल के समान निर्लेप हो, गन्धहस्ति के समान प्रभावशाली हो, लोक के हितकारी हो, लोक में दीपक समान प्रकाश करने वाले हो, अभय देने वाले हो, श्रद्धारूपी नेत्रों का दान करने वाले हो, सन्मार्ग दिखाने वाले हो, शरण देने वाले हो, बोधिबीज का लाभ कराने वाले हो, धर्म को समझाने वाले हो, धर्मदेशना का श्रवण कराने वाले हो, धर्मरूपी रथ को चलाने में श्रेष्ठ सारथी हो, धर्मचक्र का प्रवर्तन करने वाले चक्रवर्ती हो । म.-१० Jain Education International श्रीमहादेवस्तोत्रम् -१३७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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