Book Title: Mahadev Stotram
Author(s): Hemchandracharya, Sushilmuni
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandiram Sirohi

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Page 159
________________ स्वरूपं=मूर्त पुद्गलों के अनेकान्तरूप यथार्थ तत्त्व को। दृष्ट्वा देखकर । वा तथा । लोकं लोक और अलोकं =अलोक, दोनों को। दृष्टं (केवलज्ञानरूपी नेत्र से) देखे-जाने हैं । तेन = इसलिये। रकारः अर्हन् पद में रेफ । प्रोच्यते कहा जाता है । श्लोकार्थ ज्ञान चक्षु द्वारा रूपी द्रव्य का स्वरूप देखा-जाना है, तथा लोक और अलोक भी देखे-जाने हैं। इसलिये अर्हन पद में रकार (रेफ या र) कहा जाता है । भावार्थ - अरिहन्त वीतराग ऐसे तीर्थंकर परमात्मा ने अपने अन्तिम भव में संसारी अवस्था में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान एवं अवधिज्ञान इन तीनों ज्ञानों से युक्त होने के कारण विश्व के पुद्गलों के अनेकान्तरूप यथार्थ तत्त्व को देख-जानकर, [तथा दीक्षा-ग्रहण के दिन चतुर्थ मनःपर्यवज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् तप द्वारा घातिकर्मों के क्षय होने से लोकालोक प्रकाशक पंचम केवलज्ञान प्राप्त होने पर उस केवलज्ञान रूपी नेत्र से] लोक यानी चौदह रज्जुप्रमाण लोकाकाश में अवस्थित सभी द्रव्यों तथा उनकी पर्यायों को तथा अलोक यानी लोक से अतिरिक्त अलोकाकाश को देखा-जाना था। इसलिये 'अहं' पद में प्रथम रूपी द्रव्यों के पश्चात् सभी श्रीमहादेवस्तोत्रम्-१२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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