Book Title: Mahadev Stotram
Author(s): Hemchandracharya, Sushilmuni
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandiram Sirohi

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Page 144
________________ अर्थात् इन गुणों से युक्त होने पर ही यजमान बन सकता है । व्रतों के पालन करने वाले को ही यजमान कहा जाता है । अहिंसा मूलक यजमान स्वरूप यह आत्मा अर्हत् है । सकल कर्मों के क्षय हो जाने पर यह आत्मा निर्लेप आकाश तुल्य है । निर्लेपता आकाश का गुरण है । इसलिये निर्लेप आत्मा ही आकाश तुल्य कही जाती है । यजमान और आकाश तुल्य निर्लेप आत्मा सही रूप में वीतराग परमात्मा ही है ।। ३६ ।। अवतरणिका - क्षित्याद्यन्तर्गतो चन्द्र-सूर्यगुणान् निरूपयन्नाह मूलपद्यम् - सोम्यमूर्तिरुचिश्चन्द्रो, वीतरागः समीक्ष्यते । ज्ञानप्रकाशकत्वेन, स आदित्योsभिधीयते ॥ अन्वयः Mada [ ३७ ] 'वीतरागः, सौम्यमूत्तिरुचिः, चन्द्रः, समीक्ष्यते, सः, ज्ञानप्रकाशकत्वेन, श्रादित्यः, श्रभिधीयते' इत्यन्वयः । मनोहरा टीका - वीतरागः विगतो रागो यस्मात् सः Jain Education International श्रीमहादेवस्तोत्रम् — १०७ For Private & Personal Use Only वीतरागः । www.jainelibrary.org

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