________________ वास्तव में परमज्ञानी श्री लोकाशाहने संवत 1509 में यतिदीक्षा ली / 15-20 घरस खूब अध्ययन किया / जैनों के भयंकर आडंबर एवं यति वर्ग के शिथिलाचार का बहुत सूक्ष्म निरीक्षण और चिंतन किया। वि. सं. 1520 के बाद धीरे धीरे आपश्री के विचारों का प्रभाव पड़ने लगा होगा, क्योंकि संवत 1527 में इस गच्छ के लिए 'लोंकागच्छ' नामकरण हो गया था। आपश्री ने मुनि-दीक्षा 1536 में धारण की / इसके बाद या शायद संवत 1530-32 से ही आपश्री दूर दूर तक अपने मत का प्रचार करने लग गये होंगे / आपश्री को हजारों अनुयायी मिल गये / क्योंकि पं. रुपेन्द्रकुमारजी लिखित 'जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराज का जीवन-चरित्र' में पृ० 117 पर लिखा है-"आपके 400 शिष्य और लाखों अनुयायी बन गये / अमदावाद से दिल्ली तक आपने धर्म का जयघोष गुंजा दिया / " . .. ___ यह बिलकुल सत्य बात है कि गुजरात और राजस्थानमें आपश्री के विचारोंने तलहका मचा दिया था / समग्र जैन समाजमें विचार मंथन की लहर बड़ी वेगवती होकर फैली थी। विरोध भी बहुत हुआ। स्थान स्थानपर आपश्री की निंदा की जाने लगी। बदनामियाँ फैलायी गयी। तरह तरह के आरोप लगाये गये / झूठा, पाखंडी, बहकानेवाला आदि निषेध शब्दों का प्रयोग किया गया। विपरीत कहानियाँ और घटना प्रसंग गढ़े गये तथा प्रचारित किये गये। इस प्रकारका कार्य-विस्तार, प्रभाव और दूसरी ओर प्रचंड विरोध ये बातें तो प्रतिभावान् कवि के लिए भावविहूबल एवं रोमांचित करनेवाली है। लेकिन हमारे कविवर की लेखनी इसके लिए मौन है। यति-दीक्षा से लेकर स्वर्गवासतकका 35-36 वर्षों के जीवनचरित्र का विवरण बहुत ही अल्प और मामुली दिया गया है। इस विषयपर केवल एक ही तेरहवाँ सर्ग है। इसलिए हमारा तीव्र उत्सुकता भरा मन निराश हो जाता है। .. प्रस्तुत लेखक की राय से इसके दो कारण हो सकते है। एक तो यह कि ऐतिहासिक तथ्यकी अधिकांश बातें काल के प्रवाहमें खो चुकी है। प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। जो उपलब्ध है या जबानी बोला जाता है, वह पूर्ण विश्वसनीय नहीं है। एक-दूसरे के विरोधमें आवेश से बहुतसा मनमाना गड़ा गया है। धर्मप्राण जैन दिवाकर प. पू. श्री घासीलालजी महाराज जैसा श्रेष्ठ विद्वान् संतश्रेष्ठ ये सब बातें सत्य कैसे मान सकता है ? सुनी-सुनाई बातों के लिए आपश्रीने ग्रंथके. प्रारंभमें पंष्टिकरण भी दे दिया है। यथा