Book Title: Kundakundacharya ke Tin Ratna
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 6
________________ होगा, शास्त्रज्ञानका सार क्या है ? इस पुस्तकके पृष्ठ ६५ पर पंचास्ति - कायकी गाथा १५५-७३ के आधारपर इस प्रश्नका समाधान इस रूपमें मिलता है । "अर्हत्, सिद्ध, चैत्य, शास्त्र, साधुसमूह और ज्ञान, इन सबकी भक्ति से पुरुष पुण्य कर्मका बन्ध करता है, कर्मक्षय नहीं करता' । आत्मध्यानके बिना, चित्तके भ्रमणका अवरोध होना सम्भव नहीं है, और जिसके चित्त भ्रमणका अन्त नहीं हुआ, उसे शुभ अशुभ कर्मका क्षय रुक नहीं सकता, अतएव निवृत्ति ( मोक्ष ) के अभिलाषीको “निःसंग और निर्मल होकर सिद्ध स्वरूप आत्माका ध्यान करना चाहिए, तभी उसे निर्वाणकी प्राप्ति होगी, बाकी जैन सिद्धान्त या तीर्थंकरमें श्रद्धावाले, श्रुतपर रुचि रखनेवाले तथा संयमतपसे युक्त मनुष्यके लिए भी निर्वाण दूर ही है, मोक्षकी कामना करनेवाला कहीं भी किंचित् मात्र भी राग न करे, ऐसा करनेवाला भव्य भवसागर तर जाता है ।" गीताके निःसंग कर्मके सिद्धान्तका विकास इसी विचारधारा द्वारा उद्भूत हुआ है । यह भी मानना पड़ेगा कि इस तरहकी निःसंग बुद्धि जीवनके प्रौढ़ विकाससे प्राप्त होती है, जबतक मनकी वह प्रौढ़ अवस्था प्राप्त नहीं होतो तब तक गृहस्थके दैनिक कर्त्तव्य, पूजा, पाठ, गुरुभक्ति, जप, तप, दान, संयम सब आवश्यक हैं, अन्यथा, व्यवहारदृष्टिका अर्थ क्या होगा ? भारतीय ज्ञानपीठके विद्वानोंको ज्ञानपीठके संस्थापक व्यक्तिगत रूपसे इस बातकी प्रेरणा करते रहते हैं कि प्रधान प्रधान आचार्योंकी मूल बातोंको सरल और सुबोध बनाकर जनताके सामने रखना चाहिए जिससे प्राचीन ज्ञानकी अखण्ड ज्योति प्रत्येक सन्ततिके वातावरणको तदनुकूल रूपसे प्रकाशित करती रहे । ज्ञानपीठ इस दिशामें प्रयत्नशील रहेगा । -लक्ष्मीचन्द्र जैन

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