Book Title: Kundakundacharya ke Tin Ratna
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 4
________________ वक्तव्य [ प्रथम संस्करण ] जब कोई पूछता है कि, " जैन धर्म किस ग्रन्थको मानता है ?" तो हमारे पास कोई प्रस्तुत उत्तर नहीं होता, जैनू धर्मकी प्रधान विशेषता यह है कि यह धर्म अत्यन्त प्राचीन होनेपर भी वेद, बाइबिल या कुरान-जैसी किसी पुस्तक - विशेषको अपनी उत्पत्ति या समग्रताका आधार नहीं मानता, सांसारिक और आध्यात्मिक जीवनके अनुभवसे विकसित होनेवाला जैनधर्म तर्कको झेलता है और उसका समाधान करता है, अनेक आचार्योंद्वारा लिखित अनेक ग्रन्थोंमें हमें जीवनके गोचर और अगोचर तत्त्वों को समझाने और प्रतिपादन करनेकी सतत चेष्टा दिखाई पड़ती है, इस प्रकार - के तमाम ग्रन्थ अपना-अपना अलग महत्त्व रखते हैं । हम विषयको दृष्टिसे, शैलीकी दृष्टिसे और ग्रन्थके निर्माता आचार्य के जीवनकाल या परम्पराकी दृष्टिसे ग्रन्थोंका मूल्यांकन करते हैं । आचार्योंकी परम्परामें, ग्रन्थोंके निर्माणमें, विषयोंके प्रतिपादनमें और जैनदर्शन के मौलिक सिद्धान्तोंको कालान्तर में प्रामाणिकता प्रदान करनेमें आचार्य कुन्दकुन्दको कितना महान् श्रेय प्राप्त है इसका अनुमान प्रस्तुत ग्रन्थका 'उपोद्घात' पढ़नेसे हो जायेगा । कुन्दकुन्दाचार्य के प्रमुख तीन ग्रन्थों - पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसारका अध्ययन करके श्री गोपालदास जीवाभाई पटेलने गुजरातीमें यह मूल पुस्तक लिखी थी, पुस्तकके लिखनेमें श्री पटेलका दृष्टिकोण यह रहा है कि जैन दर्शन और आचारके सम्बन्धमें आचार्य कुन्दकुन्दने उपर्युक्त तीन ग्रन्थोंमें जो मूल बातें कही हैं उन्हें छाँटकर अलग-अलग विषयोंके अन्तर्गत इस तरह इकट्ठा कर दिया जाये कि प्रत्येक विषयका सिलसिलेवार परिचय मिल जाये, इसके लिए लेखकको गम्भीर अध्ययन और परिश्रम करना पड़ा है। बड़ी खूबीकी बात यह है कि लेखकने प्रत्येक विषयको इतनी अच्छी तरह समझा है कि उसे पाठकोंके लिए

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