Book Title: Konik Raj Samhaiyu
Author(s): Tirthtraiyi
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 9
________________ १ अनुसन्धान ५२ निज राजा परचक्रनी, नहि लोकने पीडा । कुकड पोपट पालता, निज कारण क्रीडा ॥९॥ चम्पा० ॥ चोर चरड विपदा तणी, कोइ वात न जाणे । धान्य सुगाल घणो वली, गाय भेंस दुझाणें ॥१०॥ चम्पा० ॥ निज निज सीमा दूरथी, हाली हल खेडे । रूपवती वेश्या घणी, वसती वरपेडें ॥११॥ चम्पा० ॥ दम्पति रमण प्रियंकरी, वन वृक्ष लेहरियां । अवट तलाव ने वावडी, मधुरां जल भरियां ॥१२॥ चम्पा० ॥ माली सुतार सिलावटा, घांची मोचि ने कडिया । कुम्भकार लोह-कंचन घडिया नंगजडिया ॥१३॥ चम्पा० ॥ क्षत्री वणिक द्विजोत्तमा-दिक जाति न मान । कोशिसें करी सोहतो, गढ लंक समान ॥१४॥ चम्पा० ॥ तोरण उंचा बांधियां, दरवाजे कपाट । भुंगल सांकल साजथी, नहिं शत्रु उचाट ॥१५॥ चम्पा० ॥ उपर पोहली सांकडी, हेठि खाइ भलेरी । जनघर कोट ने अन्तरे, आठ हाथनी सेरी ॥१६॥ चम्पा० ॥ राज मारग त्रिकोणमां, तिग चउक्क चचरिइं । राज प्रजा गमनागमें, संकिरण करिई ॥१७॥ चम्पा० ॥ हाथी घोडा पालखी, चकडोल रथाली । मेषोन्मेष मलें नहीं, पुर जोता निहाली ॥१८॥ चम्पा० ॥ चम्पा कोणीक रायनी, शोभा कहुं केती । वीर कहे नथी जायगा, तल पडवा जेती ॥१९॥ चम्पा० ॥ सूत्र०१ ॥ दुहा ॥ चम्पा इणि परे वर्णवी, कहुं वन-खण्ड उद्देश । वीर जिणन्द पधारस्यें, तिणे श्रुतथी लवलेश ॥१॥ उत्तर पूरवने वचे, जे दिशिभाग ईशान । नामे पूरणभद्र छे, व्यन्तर देव- ठाण ॥२॥

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