Book Title: Konik Raj Samhaiyu
Author(s): Tirthtraiyi
Publisher: ZZ_Anusandhan
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सप्टेम्बर २०१०
७९
ठाल - २ सारवारथसिद्धनें चंद्रुइ कांइ झुंबकमोती सोहे रे ॥ ए देशी॥ चतुरो चेतो च्यैत्यवनाली, गणधर देव वखाणे रे ।। जीरण च्यैत्य पूरातन पूजित, तोरण छत्र ढलाणे रे ॥१॥ चतुरो० ॥ रणके घण्ट धजा उपरापरि, लघुतर दोय पताका रे । फुलनी माल कलाप सुगन्धी, पंचवरण सुम ढौक्या रे ॥२॥ चतुरो० ॥ 'मोरपिंछ पूंजणी वेदिका, सेटी छाण लपेटा रे । थाप्पा चन्दन कलशा मंगल, गोसीस हाथ चपेटा रे ॥३॥ चतुरो० ॥ गन्धवटी कृष्णागर धूप, दशांग उखेव्या सारा रे । नट नाटक जल्ल मल्ल रसिला, भाण्ड कथा कहेनारा रे ॥४॥ चतुरो० ॥ लंखा मंखा देव पुजारा, होम हवन दुःख चूरे रे । देश विदेशे किरति घणेरी, जन मन वंछित पूरे रे ॥५॥ चतुरो० ॥(सूत्र २)॥ ते व्यन्तर देहरा पाखलिइं, ओक वनखण्ड भलेरो रे । गुहिर घटा घन टोप सरीखो, तरूवर केरो घेरो रे ॥६॥ चतुरो० ॥ शाल तचा मुल कन्द किसल फल, खन्ध कुसुम पत्र बीया रे । कृष्ण हरि नील शीत सनेही, जिम कान्ति तिम छाया रे ॥७॥ चतुरो० ॥ बहु जन बाहू पसारी झाले, पण थड पार न लहिइं रे । चिहुं दिश शाख प्रशाखा मोटी, केते तरुवर कहिइं रे ॥८॥ चतुरो० ॥ ओक ओक ने मलतां नव पल्लव, पत्र अधोमुख जाणो रे । काल सदा फल फूलें फलिया, वलिया भार नमाणो रे ॥९॥ चतुरो० ॥ समश्रेणे केई पादप पोहला, पिंजरी मंजरी लेंहके रे । चन्दन मलयागर वलि तेहना, परिमल महियल महके रे ॥१०॥ चतुरो० ॥ मीठा तीखा खाटा केता, फल लिसा कंटाला रे । वावि कुआ सरोवर जल लेंहके, मण्डप द्राख रसाला रे ॥११॥ चतुरो० ॥ पंच वरण केतु तरू उपरि, मयुर चकोरा सूडा रे । कोइल ने कलहंस करंडा, सारस चक्र गरूडा रे ॥१२॥ चतुरो० ॥ कपिलादिक वन जीव यूगलनी, केती जाति वखाणुं रे । वेंहल सुखासन पालखीओ रथ, मेंल्हण थानक जाणुं रे ॥१३॥ चतुरो० ॥
सूत्र-३

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