Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुसन्धान ५२
पं. वीरविजय गणि-रचित कोणिक राज साम्हड्यु
सं. तीर्थत्रयी (मुनिश्री तीर्थरुचि-तीर्थवल्लभ-तीर्थतिलकविजय)
देव के गुरु ज्यारे पोताना गाममां पधारे त्यारे भक्तजनोओ परिवार सहित वाजते-गाजते ओमना वन्दन माटे सामे जवं, तेने साम्हइयुं कहे छे. साम्हइयुं एक श्रेष्ठ भक्ति छे. दशार्णभद्र राजाओ करेलुं भगवान महावीरप्रभुनु साम्हइयुं श्रेष्ठ गणाय छे. पूज्य वीरविजयजी म.सा.ओ' दशार्णभद्रनी सज्झाय रचेली छे. तेमां साम्हइयानी शोभानुं वर्णन छे. तेमां अढार हजार हाथी, चोवीस लाख अश्वो, एकवीश हजार रथ, अकाणुं करोड पायदळ, ओक हजार अन्तेपुरीओ आदि विशाळ परिवार हतो. आवी रीते कोणिक राजाओ पण प्रभु वीर- साम्हइयुं कर्यु हतुं. तेनुं गद्यबद्ध वर्णन श्री औपपातिक नामना उपाङ्गआगममां (सूत्र १-३७) अलङ्कारिक अने रसाळ शैलीमां रीते थयेलुं छे. तेनो पद्यबद्ध भावानुवाद पण्डित कवि श्रीवीरविजयजीओ अत्यन्त सरळ-सुगम शैलीमां को छे. आ रसाळ गेयकाव्य कविश्रीओ पोताना हस्ताक्षरोमां आलेखेखें छे. ते काव्य अत्रे सम्पादित करी प्रस्तुत करवामां आवे छे. लींबडी-भण्डारनी नं.-२१८४ प्रत उपरथी प्रस्तुत सम्पादन थयुं छे. श्री अमृतभाई पटेलना मार्गदर्शनथी आ सम्पादन करायुं छे.
परमात्मभक्ति आत्मिक आनन्द अने मुक्तिनी प्राप्तिनो अमोघ उपाय छे. भक्तिना नव प्रकारो प्रसिद्ध छे. जेने नवधाभक्ति (= श्रवण, स्मरण, कीर्तन, वन्दन, पूजन, अर्चन, दास्यभाव, सख्यभाव, आत्मनिरूपण) कहेवामां आवे छे. सामान्यतः साम्हईयुं वन्दन (४.), पूजन (५) अने अर्चन (६) माटे छे. परन्तु, विशेषतया तो साम्हइयाथी नवधाभक्ति थाय छे. 'काल्य प्रभु इहां आवशे' ना श्रवण (१) द्वारा आनन्द प्रगटेलो, प्रभु-आगमननी प्रतीक्षा करवामां सतत स्मरण
१. आ सज्झाय उत्तराध्ययन परथी रची छे. र.सं. - १८६३, महाव.-१३, लींबडी,
ढाल-५.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१०
७१
(२) थयुं, अने आगमनना वधामणां सांभळ्या पछी शक्रस्तवआदि द्वारा प्रभुगुणोनुं कीर्तन (३) थयुं छे. 'स्वामी पधारे तो सेवके विनय अवश्य करवो.' आवो दास्यभाव (७) साम्हइयामां प्रगट थाय छे. प्रभुना दर्शन अने प्रभुवाणीना श्रवण पछी 'त्वं मे माता पिता नेता, देवो धर्मो गुरुः परः । प्राणाः स्वर्गोऽपवर्गश्च, सत्त्वं तत्त्वं गतिर्मतिः२ ॥' आवी सख्यभावनी (८) प्रीति बंधाय छे. अन्ते आत्मनिरूपण (९) रूप अभेदभाव सधाय छे. 'कोणिकराजाओ पण तीर्थंकर नामकर्म बांध्युं छे.' ए वात आत्मनिरूपण भक्तिनी साक्षी छे. आम, साम्हइयामां नवधा भक्ति समायेली होवाथी साम्हइयुं श्रेष्ठ भक्ति छे.
__ आ कृतिना रचयिता कवि श्री वीरविजयजी सुन्दर-सुगेय रचनाओने कारणे जैन काव्यसाहित्यमां प्रतिभासम्पन्न कवि तरीके प्रसिद्ध छे. तेमनी रचनाओ वेलि, स्तवन, सज्झाय, स्तुति, चैत्यवन्दन, दुहा, हरियाळी, गहुंली, रास, विवाहलो, पूजा, लावणी, ढाळीया अने आरति जेवा १४ काव्य प्रकारोथी समृद्ध छे. अमनी रचनाओमांथी स्नात्रपूजा, पंचकल्याणक पूजा, महावीर जिन पंचकल्याणक स्तवन आदि अत्यन्त लोकप्रिय छे.
पूज्य वीरविजयजी म.नुं संसारी नाम केशवराम हतुं राजनगर = अमदावादना रहेवासी औदीच्य ब्राह्मण जज्ञेश्वर अने वीजकोर बाईना घरे संवत १८२९नी आसो सुद-१० ना दिवसे तेमनो जन्म थयो. तेमणे पाठशाळा पद्धतिथी संस्कृतभाषानुं ज्ञान प्राप्त कर्यु. रळीयातन साथे तेमना लग्न १८ वर्षनी ऊमर पहेला थया हता. लग्न पछी तेमना पिता अवसान पाम्या. केटलाक समय बाद श्री शुभविजयजी म.सा.नो समागम थयो. शुभवि.म.ना वैराग्यमय उपदेशथी संसार प्रत्ये वैराग्यभाव प्रगट्यो अने संवत १८४८ ना कारतक वदमां तेमनी पासे दीक्षा लीधी. दीक्षा पछी शुद्ध चारित्रसाधना साथे अजोड ज्ञानोपासना करी. गुरु पासे आगम ग्रन्थोनो उंडाणथी अभ्यास कर्यो, छन्दशास्त्र अने पंचकाव्यादिनो पण अभ्यास कर्यो. सं. १८६७ मां गुरुदेवे तेमने पंन्यास पदथी विभूषित कर्या, संवत १८५७ थी १९०५ सुधी अविरतपणे साहित्यरचना करीने पू. वीरविजयजी म. ए संवत १९०८मां मांदगी दरम्यान ७९ वर्षनो जीवनकाल समाप्त कर्यो..
२. श्रीसिद्धसेनदिवाकरसूरिविरचितः श्रीवर्धमानशक्रस्तवः श्लो० २
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
अनुसन्धान ५२
प्रस्तुत रचना कविश्रीओ संवत १८६४ मां करी छे. आगम ज्ञानने कविओ कविताना सुन्दर वाघा पहेराव्या छे. आगमिक प्राकृत भाषा सहज, सरळ अने सुन्दर छे. छतां समयनी धारामां तेनो परिचय घटता अत्यारे आपणा माटे समजवी मुश्केल पडवा मांडी छे. ओ मुश्केलीने दूर करी अहीं सरळ भावानुवाद को छे. जेमके - . रिद्धित्थियसमिद्धा । - छंडी चपलता लक्षमी रहि छे थिर थोभा
हलसय-सहस्स-संकिट्ठ-विकिट्ठ-लट्ठ-पण्णत-सेउसीमा । - निज निज सीमा दूरथी हाली हल खेडो. जुवइविविहसण्णिविट्ठबहुला । - रूपवती वेश्या घणी वसती वरपेडें. आरामुज्जाण-अगड-तलाग-दीहिय-वप्पिणि-गुणोववेया । - दंपत्ति रमण प्रियंकरी वन वृक्ष लेंहरीयां
अवट तलाव ने वावडी मधुरां जल भरियां ॥ - उत्ताणणयणपेच्छणिज्जा । - मेषोन्मेष मले नहीं पुर जोता निहाली
गोसीस-सरस-रत्तचंदण-दद्दर-दिण्ण-पंचंगुलितले उवचियचंदण-कलसे।
-- थाप्या चन्दन कलशा मंगल गोसीस हाथ चपेटा रे. - पंचवण्ण-सरस-सुरहि-मुक्क-पुप्फपुंजोवयारकलिए। - पंचवरण सुम ढोक्या
.
अणेग-रह-जाण-जुग्ग-सिविय-पविमोयणा । - वेंहल सुखासन पालखीओ रथ मेल्हण थानक जाणुं रे कवोयपरिणामे । - जरत कपोत आहार हुयवह-णिद्धंत-धोय-तत्त-तवणिज्ज-रत्त-तालु-जीहे । – रक्त कनकमयी तालुउं रसना राती चोल. पणतीस-सच्च-वयणाऽतिसेस-पत्ते । - पांत्रीस वांणी गुणें भर्या. कमलाऽऽगर-संड-बोहए । - जल पंकज दल बोधतो. बहु-धण-धण्ण-णिचय-परियाल-फिडिया । - राज्य रीद्ध छांडी छती. अट्ठ-विणिच्छयहेडं, अस्सुयाइ सुणेस्सामो, सुयाइं निस्संकियाइं करिस्सामो अप्पेगइआ अट्ठाई हेऊ-कारणाइं वागरणाइं पुच्छिस्सामो । - गुप्त अरथ
.
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१०
७३
हेतु सुणस्युं, प्रश्न ते नयभंगे करस्युं, पूर्व सुणित निश्चल धरस्युं. उक्किट्ठि-सीहणाय-बोल-कलकलरवेणं पक्खुब्भिअ-महासमुद्द-रवभूतं पिव। - कलकल लोक शब्द करीइं, वेल वधे जिम भरदरिइं. ओसारिअ-जमल-जुअल-घंटे विज्जुपणद्धं व कालमेहं । - घण्टा युगल ते विजलीओ मेघ समो करी श्याम.
कुंडल-उज्जोविआऽऽणणे । - कुण्डल मुख अजुआलता . कंचण-कोसी-पविट्ठ-दंताणं । - दन्त लघु कंचन मढ्या.
पूज्य वीरविजयजीओ मात्र अनुवाद नथी कर्यो, परन्तु कल्पनाओना सुवर्ण रंगोथी अनुवादने काव्यत्वथी रंगी दीधो छे. (नीचेनी पंक्तिओ औपपातिकमां नथी, ते कविनी पोतानी कल्पना छे.)
नख पग तलनी ज्योतिमा हारे रयण उदार. (ढा. ३/८) - साधुवेसे नवि कह्या, नहि गृहस्थने वेश ।
वेश अनन्ये जिनवरा, (ढा ३/११) भव दावानलमां भमी, ठोर ठोर अपमान । मोहरायने मारवा, करता मन्त्र विधान ॥ (ढा. ५/१) जिम रण थम्भ मनाक । (ढा. ८/५)
मुख कज सेवन हंसिका । (ढा. ९/ दूहो-५) . ग्रहगणमां जिम चन्द / प्रथम परमानन्द । (ढा ९/३) - देव-देवी रवि चन्द्रमा जूई गगने रही ताम । (ढा. ९/२४)
'छंडी चपलता लक्षमी रही छे थिर थोभा' (ढा. १-१) अहीं 'चंचळ लक्ष्मी पण चम्पामां स्थिर थई गई' ओ कहेवा द्वारा नगरीनी समृद्धता अने रमणीयताने अति समृद्ध बतावी छे. कारण के पहेला लक्ष्मीने स्वयोग्य स्थान क्यांय मळतुं न हतुं माटे चंचळ हती, बधे फरती हती, अहीं आव्या पछी नगरीने निहाळीने अनुं मन त्यां ज स्थिर थई गयुं. 'घर श्रेणी उजलीओ' (ढा १-४) गृहपंक्तिनी उज्ज्वलता दर्शावीने जाणे के नगरवासीओनी चित्तवृत्तिओनी उज्ज्वलता ध्वनित करी छे. ढाल-१ कडी ३ थी ८ मां क्रमे करीने अर्थ, काम अने धर्म
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४
अनुसन्धान ५२
पुरुषार्थनुं प्रतिपादन करीने ३'अन्योन्याप्रतिबन्धेन त्रिवर्गमपि साधयन्' आ गुण लोकोना जीवनव्यवहारमा सुपेरे वणायेलो छ अर्बु दर्शाव्यु छे. 'नगरीने निहाळता मेषोन्मेष मळता नथी' (१/१८) आq कडं, मेषोन्मेष तो देवोना न मळे, अटले के आ नगरीनुं दर्शन करनार पोते देवलोकमां छे अq अने लागतुं हशे. अर्थात् आ चम्पानगरी देवनगरी जेवी सुन्दर अने सुशोभित छे..
ढाल-२, कडी- ६ थी १३ वनखण्डनुं वर्णन करती वेळाओ अहीं अटलुं सुसूक्ष्म निरूपण थयुं छे के जेना द्वारा वनखण्डनुं सम्पूर्ण शब्दचित्र चितराई जाय छे. 'कुसुमने भार नमी तरु डाल' (ढा. २/१६) लची पडेला फळोना भारे तो डाळीयो नमी जाय, परन्तु अहीं पुष्पोना भारथी डाळीयो नमी गई छे. डाळीओ-डाळीओ केटलां बधां पुष्पो हशे? आपणे मात्र आंखो मीचीने निहाळीओ, आटलां बधां पुष्पोनी हाजरी वातावरणने परिमल-पूर्ण बनावी देती
हशे.
'वन शुभ शोभाथी, लज्जाणुं नन्दन, सुरगिरि सेवे रे,
ओ वन जोता सुर अनीमेष, वीर ते उपम देवे रे.' (ढा. २/२२) वनखण्डनी शोभा जेटली बधी छे के जेने जोईने नन्दनवन शरमाई गयुं अने ठेठ मेरु पर जईने पोतानु मुख संताडी दीधु. देवोनी आंख पहेला मीचाइ जती हशे, आ वन-दर्शनथी ओमनी आंखो मीचावानुं भूली गइ. त्यारथी देवो अनिमेष कहेवाया हशे. आम कहीने वनशोभाना चित्रने उत्प्रेक्षानी सोनेरी फेममां मढ्युं छे.
ढाल-३ मां परमात्माना प्रत्येक अंगने प्राकृतिक उपमाओ आपीने कवि जणावे छे के प्रभुनो प्रकृति साथेनो सुमेळ, प्रेम अने प्रकृतिकल्याणनी भावना अद्भुत छे.
ढाल-४ दूहा-४/५ 'पहेला प्रभु ओकला हता तो य मारु निकन्दन काढी नाख्युं हतुं, हवे तो विशाळ मुनिसैन्यनी साथे आवी रह्या छे. आ समाचार सांभळीने भयथी कंपती निद्रा लोको पासेथी भागी गइ.' 'प्रभुना आगमननी राह जोता लोकोने निद्रा आवती नथी.' आ सामान्य हकीकत सजाववा सजीवारोपणनुं घरेणुं वापर्यु छे. निद्रा भयभीत थईने बिचारी भागी गई-आ सांभळतां करुणरसनी ३. कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितम् योगशास्त्रम् - १/५२.
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१० अनुभूति सहजताओ थई जाय छे.
'जल पंकज दल बोधतो, उग्यो किरण हजार । प्रभु मुख साम्हइया तणी, शोभा देखण सार ॥ (ढा ४/८)
जे पोताना प्रभावथी आकाशमां रहीने पण सरोवरमा रहेला कमळने खीलवी दे छे अने जे हजार किरणोनी कान्तिथी झळहळी रह्यो छे, ओ सूर्य पण प्रभु मुखनो प्रभाव अने कान्ति जोवा माटे जाणे उग्यो छे. आम उत्कृष्ट उत्प्रेक्षावर्णन द्वारा 'प्रभुमुख सूर्य करतां पण वधु प्रभावशाळी अने वधु कान्तिमान छे,' आवो व्यतिरेक अलङ्कार सूचव्यो छे.
___ 'तप तपता इम साधुजी, सिद्धान्त पेटी हाथ.' (ढा ५/१५) अहिं अq ध्वनित थतुं लागे छे के - (१) पेटीमां रत्नो के झवेरात भरवाना होय. अहिं तो सिद्धान्त भरेली पेटी छे. माटे सिद्धान्त रत्नोनी जेम अतिकीमती छे. (२) 'तपस्वी मुनि शास्त्रज्ञानथी युक्त छे.' आ कथन द्वारा अहीं तपमार्गमां पण ज्ञाननी ज प्रधानता दर्शावी छे.
'अरीसा सम परकाश' (ढा. ६/दूहो-२) अहिं मुनिने दर्पण समान कह्या छे. दर्पणनो महत्त्वनो गुण निर्मलता छे. तो मुनिमां पण निर्मलता भरेली छे. दर्पण सामी वस्तुनुं यथास्थित प्रतिबिम्ब आपे छे, तो मुनि पण यथास्थित अर्थना शुद्ध प्ररूपक छे.
ढा. -७/२ मां प्रभुना दर्शनथी आनन्द उछळे छे अने तत्त्ववचन- श्रवण करे छे. तत्त्वश्रवण श्रद्धा उत्पन्न करे छे. आम, अहीं सम्यग् दर्शन- अने कडी९, १०मां सम्यग् ज्ञान अने सम्यग् चारित्रनुं प्ररूपण थयुं छे. 'वसना-भूषणस्युं जडीया' (ढा. ७/११) खरेखर वस्त्र-आभूषणमां तो रत्नोने जडवाना होय. अहीं नगर लोकने वस्त्राभूषणमां जड्या छे. अथी अq सूचित थाय छे के - त्यांना मानवो सामान्य नहोता पण नररत्नो हता.
___ढा. ८/१ थी ६मां हस्तिरत्नना शणगारना वर्णनने स्वभावोक्ति (जाति) अलङ्कारथी दीपाव्युं छे. 'अन्तेउर कारणे ओ वस्त्रावृत अपहार' (ढा. ८/८) अन्तेपूर माटे वस्त्रावृत यान सज्या छे. आ परथी ओ समयनी स्त्रीओनी मर्यादाशीलता प्रगट थाय छे.
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
अनुसन्धान ५२
ढा. ९, दूहो-६ 'कल्पतरुस्युं अलंकर्यो'मां स्युं नो अर्थ 'नी जेम' (=इव) अने 'आव्या मंगलशब्दस्यु'मां स्युं नो अर्थ साथे (=सह) आ बन्ने प्रयोगो ओक ज दूहामां साथे आपी दीधा छे. 'आठ मंगल आगे चले, प्रथम परमानन्द' (ढा. ९/३) सामैया साथे कोणिक राजा प्रभु पासे पहोंचे ते पहेला ज तेमनो आनन्द आगळ दोडे छे. अहिं राजानो प्रभु दर्शन माटेनो तलसाट वर्णवता कविले कह्यु के कोणिकना हैये प्रभुभक्ति उछळती हती.
___'भव अटवीमां रे रजल्यो प्राणीयो, नरक नीगोदे खंतोरे' (ढा. १०/ २) आ कथनीयने आगळ उपमा अने निदर्शनाथी समजावीने करुणरसमां अभिवृद्धि करी छे. आ सम्पूर्ण १०मी ढाल शान्तरसनी अद्भुत अभिव्यक्ति करे छे. अन्ते शान्तरसनुं प्रतिपादन करवा द्वारा अq दर्शित थतुं लागे छे के अन्ते तो उपादेय शान्तरस ज छे.
___ढाल-११ मां कवि हर्षपूर्वक कोणिक महाराजा जेवं सामैयुं करवानो उपदेश आप्यो छे. अने पोतानी गुरु परम्परा-पं. सत्यविजयजी-कपुरविजयजीखीमाविजयजी-जसविजयजी-शुभविजयजी दर्शावी छे. आ कृति रचना माटेनो हेतु वहोरा डोसाना पुत्र जेठा, तेमना पुत्र जयराजभाईनी विनन्तिथी श्रीवीरविजयजी म.सा.अ आ साम्हैयुं रच्युं छे. (संवत १८६४) अने आ 'साम्हैयु' सूत्रवचननी फूलमाळाओथी मघमघे छे. जेने जयराजभाईले उल्लासपूर्वक कण्ठमां धारण करी छे.
॥६॥ अथ साहमइयुं लिख्यते ॥
॥ दुहा ॥ विमल वचन रस वरसती, सरसति प्रणमी पाय । पुरिसादाणी पासजी, संखेश्वर सुपसाय ॥१॥ श्री शुभविजय विजयकु(क)रु, सदगुरु चरण पसाय । साम्हइयुं तिम वरणवू, जिम कर्यु कोणीक राय ।।२।। साम्हइयां जिननां कर्यां, श्रेणीक प्रमुख नरेश ।। सूत्र-सूत्रे तस साखि छे, जहा कोणीक विशेस ॥३॥
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१०
आचारांग उपांग जे, सूत्र उवाइ मोझार ।
छे वर्णव विस्तारथी, पण कहुं लेश विच्यार ||४|| सांभलता सुख श्रवणलें, हइडे राग उद्दाम । सुमति चालस्यें मलपता, कुमति चलें मुख श्याम ॥५॥ जिम जिन साम्हइयुं कर्यु, तिम करवुं मुनिराय । जे देखी भद्रक भवि, पूर्व प्रतीत ठराय ||६|| प्रभु प्रणम्या तिणें प्राणी, प्रणमें जेह मुणिन्द | आणाधर मुनि हेलिया, तिणें नवि मान्या जिणन्द ||७|| ते माटे गुणवन्तनें, करज्यो भवि बहुमान ।
हवे सुणज्यो कोणीक तणी, चम्पा नयरी प्रधान ॥८॥
ढाल - १ थां परि वारि मांका साहिबा, कम्बल मत भज्यो । ओ देशी ॥
चम्पा चम्पक मालती, नन्दन वन शोभा ।
छंडी चपलता लक्षमी, रहि छे. थिर थोभा ||१|| चम्पा० ||
मुख्य सुभद्रा धारणी, आदि बहु राणी ।
दोय नाम छें जुजूआ, पण अक पटराणी ॥२॥ चम्पा० ॥ धनवन्ता व्यवहारिया, वर मन्दिर वसिया ।
वणज करे परदेशना, वेपारी रसिया ||३|| चम्पा० ॥
सात भुई आवासनी, घर श्रेणी उजलियो ।
उभी उपर नारियो, झलके विजलियो ||४|| चम्पा० ॥ भोगी मन्दिर नाचती, वेश्या सुन्दरियो ।
कोकिलकण्ठ हरावती, जाणे देव कुंमरियो ||५|| चम्पा० ||
मेढी माल चहुरें सदा, रस गीत सवाया ।
कौतक कौतकिया जुई, नट भाट भवाया || ६ || चम्पा० ॥ सुखिया लोक वसे घणा, न लहें दिन राति ।
जिन प्रासादे पूजता, धरमी परभाति ॥७॥ चम्पा० ॥ अरिहा च्यैत्य घणा तिहां, नाकीघर माला । याचकने संतोषवा, बहुली दान शाला ॥ ८ ॥ चम्पा० ॥
७७
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
१
अनुसन्धान ५२
निज राजा परचक्रनी, नहि लोकने पीडा । कुकड पोपट पालता, निज कारण क्रीडा ॥९॥ चम्पा० ॥ चोर चरड विपदा तणी, कोइ वात न जाणे । धान्य सुगाल घणो वली, गाय भेंस दुझाणें ॥१०॥ चम्पा० ॥ निज निज सीमा दूरथी, हाली हल खेडे । रूपवती वेश्या घणी, वसती वरपेडें ॥११॥ चम्पा० ॥ दम्पति रमण प्रियंकरी, वन वृक्ष लेहरियां । अवट तलाव ने वावडी, मधुरां जल भरियां ॥१२॥ चम्पा० ॥ माली सुतार सिलावटा, घांची मोचि ने कडिया । कुम्भकार लोह-कंचन घडिया नंगजडिया ॥१३॥ चम्पा० ॥ क्षत्री वणिक द्विजोत्तमा-दिक जाति न मान । कोशिसें करी सोहतो, गढ लंक समान ॥१४॥ चम्पा० ॥ तोरण उंचा बांधियां, दरवाजे कपाट । भुंगल सांकल साजथी, नहिं शत्रु उचाट ॥१५॥ चम्पा० ॥ उपर पोहली सांकडी, हेठि खाइ भलेरी । जनघर कोट ने अन्तरे, आठ हाथनी सेरी ॥१६॥ चम्पा० ॥ राज मारग त्रिकोणमां, तिग चउक्क चचरिइं । राज प्रजा गमनागमें, संकिरण करिई ॥१७॥ चम्पा० ॥ हाथी घोडा पालखी, चकडोल रथाली । मेषोन्मेष मलें नहीं, पुर जोता निहाली ॥१८॥ चम्पा० ॥ चम्पा कोणीक रायनी, शोभा कहुं केती । वीर कहे नथी जायगा, तल पडवा जेती ॥१९॥ चम्पा० ॥
सूत्र०१
॥ दुहा ॥ चम्पा इणि परे वर्णवी, कहुं वन-खण्ड उद्देश । वीर जिणन्द पधारस्यें, तिणे श्रुतथी लवलेश ॥१॥ उत्तर पूरवने वचे, जे दिशिभाग ईशान । नामे पूरणभद्र छे, व्यन्तर देव- ठाण ॥२॥
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१०
७९
ठाल - २ सारवारथसिद्धनें चंद्रुइ कांइ झुंबकमोती सोहे रे ॥ ए देशी॥ चतुरो चेतो च्यैत्यवनाली, गणधर देव वखाणे रे ।। जीरण च्यैत्य पूरातन पूजित, तोरण छत्र ढलाणे रे ॥१॥ चतुरो० ॥ रणके घण्ट धजा उपरापरि, लघुतर दोय पताका रे । फुलनी माल कलाप सुगन्धी, पंचवरण सुम ढौक्या रे ॥२॥ चतुरो० ॥ 'मोरपिंछ पूंजणी वेदिका, सेटी छाण लपेटा रे । थाप्पा चन्दन कलशा मंगल, गोसीस हाथ चपेटा रे ॥३॥ चतुरो० ॥ गन्धवटी कृष्णागर धूप, दशांग उखेव्या सारा रे । नट नाटक जल्ल मल्ल रसिला, भाण्ड कथा कहेनारा रे ॥४॥ चतुरो० ॥ लंखा मंखा देव पुजारा, होम हवन दुःख चूरे रे । देश विदेशे किरति घणेरी, जन मन वंछित पूरे रे ॥५॥ चतुरो० ॥(सूत्र २)॥ ते व्यन्तर देहरा पाखलिइं, ओक वनखण्ड भलेरो रे । गुहिर घटा घन टोप सरीखो, तरूवर केरो घेरो रे ॥६॥ चतुरो० ॥ शाल तचा मुल कन्द किसल फल, खन्ध कुसुम पत्र बीया रे । कृष्ण हरि नील शीत सनेही, जिम कान्ति तिम छाया रे ॥७॥ चतुरो० ॥ बहु जन बाहू पसारी झाले, पण थड पार न लहिइं रे । चिहुं दिश शाख प्रशाखा मोटी, केते तरुवर कहिइं रे ॥८॥ चतुरो० ॥ ओक ओक ने मलतां नव पल्लव, पत्र अधोमुख जाणो रे । काल सदा फल फूलें फलिया, वलिया भार नमाणो रे ॥९॥ चतुरो० ॥ समश्रेणे केई पादप पोहला, पिंजरी मंजरी लेंहके रे । चन्दन मलयागर वलि तेहना, परिमल महियल महके रे ॥१०॥ चतुरो० ॥ मीठा तीखा खाटा केता, फल लिसा कंटाला रे । वावि कुआ सरोवर जल लेंहके, मण्डप द्राख रसाला रे ॥११॥ चतुरो० ॥ पंच वरण केतु तरू उपरि, मयुर चकोरा सूडा रे । कोइल ने कलहंस करंडा, सारस चक्र गरूडा रे ॥१२॥ चतुरो० ॥ कपिलादिक वन जीव यूगलनी, केती जाति वखाणुं रे । वेंहल सुखासन पालखीओ रथ, मेंल्हण थानक जाणुं रे ॥१३॥ चतुरो० ॥
सूत्र-३
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुसन्धान ५२
ते वनखण्ड विचालें मोटो, वृक्ष अशोक रूपालो रे । आवल बावल डाभ रहित छे, मूल कन्द विस्तारो रे ॥१४॥ चतुरो० ॥ पृथवीसिला पट मान प्रमाणे, ते तरू हेठि वदीता रे । काजल केश कसोटी जेहवी, गणधर ओपम देता रे ॥१५॥ चतुरो० ॥ आठ खुणाली वृषभ तुरग नर, मगर चमरी चितरियां रे । कुसुमने भार नमी तरू डाल, च्यार दिशे विस्तरियां रे ॥१६॥ चतुरो० ॥ झंकारारव भमरा-भमरी, कवि मतिइं रस चखियां रे । मंगल आठ रतनमयी शाखा, शाखाई आलखियां रे ॥१७॥ चतुरो० ॥ पंचवरण ध्वज झाझा झलके, वज्ररतनमइ दन्डो रे । चलकंता चामर ने घण्टा-युगला नाद प्रचण्डो रे ॥१८॥ चतुरो० ॥ शतपत्रादिक कमल घरां, सर्व रतनमइ ज्योती रे । सुन्दरता तेहनी सी कहिइं, आंखडी हरखे जोती रे ॥१९॥ चतुरो० ॥ चम्पक तिलक अशोक तमाल, हिंताला धव तालो रे । दाडिम फणसा आम्बा केरी, फरती श्रेणि रसालो रे ॥२०॥ चतुरो० ॥ साथ सहेलीनी मली टोली, रमणीक भूमी कहिइं रे । मीत्र वरग ने दम्पती बेठां, ठाम ठाम तिहां लहिइं रे ॥२१॥ चतुरो० ॥ वन शुभ शोभाथी लज्जाणुं, नन्दन सुरगिरी सेवे रे । ओ वन जोता सुर अनिमेष, वीर ते उपम देवे रे ॥२२॥ चतुरो० ॥
सूत्र - ४-५
॥ दूहा ॥
ते चम्पापुर वन धणी, कोणीक नामे उदार । सामन्तादिक रथ भटा, हय गय बहु भण्डार ॥१॥
सूत्र - ६ विनय विवेक गती सती, अपछर रूप अनूप । पूर्व कही पटनारिस्युं, रातो अहनिश भूप ॥२॥
सूत्र - ७
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१०
विचर्या आज अमुक पुरे, जे प्रभु वात कहंत । प्रवृत्तिवाहक ओक छे, वलि तेहने परितंत ॥३॥ पूरे तस आजिविका, नरपति जिनपति ध्यान । हवे वर्णव प्रभु वीरनो, सांभलज्यो धरि कान ॥४॥ सूत्र ८
ढाल - ३ नरखि नरखि तुझ बिम्बने || ओ देशी ॥ श्रमण भदन्त सयंबुद्धा, मार्ग शरण दातार । जिणन्द जगतगुरु || चन्द्र-कमल वदनोपमा, जरत - कपोत- आहार ॥१॥ जिणन्द० ॥ मंस रुधिर खीर वर्ण छे, कंचन सम तनु मान ॥ जिणन्द० ॥ लक्षण सहस अठोत्तरा, कुन्तल काजल वान ||२|| जिन्द० ॥ चन्द्र अरध सम भाल छे, युक्त सलुणा कान ॥ जिणन्द० ॥ भमुहा चाप समी कही, नेत्र कमलदल मान ||३|| जिणन्द० || सरल गरुड सम नासिका, अधर अरुण परवाल || जिणन्द० ॥ गो-पय-चन्द्र समुज्जला, अविषम दन्त विशाल ||४|| जिन्द० || दाढी मुंछ मनोहरु, मंसल देश कपोल || जिन्द० ॥ रक्तकनकमयी तालुउं, रसना रातीचोल ॥५॥ जिन्द० ॥ ग्रीवा अंगुल च्यारनी, खन्ध विपुल भुज लंब || जिणंद || पीवर कोमल अंगुली, करतल नख ततंब ||६|| जिन्द० ॥ श्रीवच्छ उज्जल मलहरू, मच्छोदर सम पेट || जिन्द० || नाभि कमल समी कही, लंक कटी हरि नेट ||७|| जिणन्द० ॥ साथल जानु ने झंघा, गज शुंढा आकार ॥ जिणन्द० ॥ नख पग तलनी ज्योतिमां, हारे रयण उदार ||८|| जिन्द० || मछर मोह ममत गयो, नाठा दोष अढार || जिन्द० ॥ श्रमणपति विश्वम्भरु, बाल्या घातिया च्यार ||९|| जिन्द० ॥ पांत्रीस वाणी गुणे भर्या, मूल अतिसय च्यार || जिन्द० ॥ ओगणीस कीधा देवना, कर्म खपे अगीयार || १०|| जिणन्द० ॥ साधु वेसे नवि कह्या, नहिं गृहस्थने वेश | जिन्द० ॥ वेश अनन्ये जिनवरा, "वेद - वदन उपदेश ॥ ११ ॥ जिन्द० ॥
८१
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२
छत्रीस सहस ते साधवी, चउद सहस अणगार || जिणन्द० || देव अनेके परिवर्या, भूतल करत विहार ॥१२|| जिन्द० ॥ चम्पा गमन उद्देशथी, शुभ भवि कैरव चन्द ॥ जिणन्द० ॥ कोणिक पुर उपगामडे, आव्या वीर मुणिन्द ||१३|| जिणन्द० ॥ ६ सूत्र - १०
॥ दूहा ॥
प्रवृत्तिवाहक ते लही, भूपने वात कहन्त । काल्य इहां प्रभु आवस्ये, इंम सघलो विरतन्त ॥१॥
सूत्र - ११ ते निसुंणी धरणीपती, जिन सनमुख विधिवन्त । सात आठ पगला जइ, शक्रस्तव पभणन्त ॥२॥ वन्दन - नमन करी तिहां, प्रीतिदान तस दीध । 'प्रभु आव्या संभलावजो, वेगे' विसर्जन कीध ॥३॥
सूत्र १२
हर्षभरे रजनी गई, न लहे पूरजन निन्द ।
अकाकी प्रभु जब हुंता, तव मुझ कीध निकन्द ॥४॥ मुनिसैन्यें ते परिवर्या, लही आगमन प्रमाण । नाठी निन्द्रा ते भयें, कवि घट-घटना जाणि ॥५॥ जल पंकज दल बोधतो, उग्यो किरणहजार । प्रभु मुख साम्हइयां तणी, शोभा देखण सार ॥६॥
अनुसन्धान ५२
1
सूत्र - १३
ढाल - ४ देवानन्द नरन्दनो रे जन रंजनो रे लाल । ओ देशी । चक्र चलें आकाशमां रे, मन मोहना रे लाल,
छत्र चलें आकाश रे, सुची सोहना रे लाल.
सिंहासन चामर चलें, मन०, आगल सुर अरदास रे, सुची० ॥१॥ साथे मुनिवर शोभता, मन०, अवधि मनपर्याय रे, सुची० । केता मुनिवर केवली, मन०, वादी केइ मुनिराय रे, सुची० ॥२॥
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१०
उग्रकुले केइ उपना, मन०, इक्षु कौरव भोग रे, सुची० । उत्तमकुलमा उपजी, मन०, श्रवणें न सुणियो सोग रे, सुची० ॥३॥ लवणिमरूपें अलंकर्या, मन०, सेनापती पुरशेठ रे, सुची० । कोटीध्वज व्यवहारिया, मन०, राजा प्रमुख विशिट्ठ रे सुची० ॥४॥ डाभ अणी जल बिन्दूओ, मन०, योवन रसनो छाक रे, सुची० । कंचन कामिनी भोगने रे, मन०, जाण्यां फल किंपाक रे, सुची० ॥५॥ साध्य धरमने साधवा रे, मन०, साधनता संयोग रे, सुची० । राज्य रीद्ध छांडी छती, मन०, लीधो मुनिवर योग रे सुची० ॥६॥ अर्धमास ओकमासना, मन०, बे-त्रिण इम अगियार रे, सुची० ।। वास-दुवास अनेकना, मन०, दीक्षित बहु अणगार रे, सुची० ॥७॥
सूत्र - १४ समरथ साप अनुग्रहे, मन०, बलिया त्रिकरण योग रे, सुची० । केता लच्छि गुणें भर्या, मन०, खेलोसहि हररोग रे, सुची० ॥८॥ जल्लोसहि विप्पोसही, मन०, सर्वोसहि समअंग रे, सुची० । कोष्टक पदअनुसारिया, मन०, बीजबुद्धि पट रंग रे, सुची० ॥९॥ संभिन्नश्रोत खीराश्रवा, मन०, मधुराश्रव घृत छेक रे, सुची० । अखिण महाणसी तप थकी, मन०, सम्भव लच्छि अनेक रे, सुची० ॥१०॥ विपुलमती ते शिवगमी, मन०, ऋजुमति केइ मुणिन्द रे, सुची० ।।
वैक्रिय अड सिद्धी धणी, मन०, करता कर्म निकन्द रे, सुची० ॥११॥ विद्या-झंघा चारणा, मन०, पत्र कुसुम जल रंग रे, सुची० । शुभ गुरू वचनें जाणज्यों, मन०, चारणना बहुभंग रे, सुची० ॥१२॥
॥ दूहा ॥ जाति कुल बल रूपस्युं, पद सम्पन्न सहीत । लाघव लज्जा विनय गुण, दंसण नाण चरीत ॥१॥ क्रोधादिक चउ झीतता, परिसह ने उवसग्ग । जित निंद्रा-भय-आश्रवा, चरण-करण गुण लग्ग ॥२॥
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४
अनुसन्धान ५२
ढाल-५ चन्द्रप्रभु जिनचन्द्रमा, मने देखण वें ॥ ओ देशी ॥ भव दावानलमां भमी, चित चेत्या रे, ठोर ठोर अपमान, चतुर चित चेत्या रे । मोहरायने मारवा ॥ चित०॥ करता मन्त्र विधान ॥ चतुर० ॥१॥ संयम साधे साधुजी ॥ चित० ॥ तप तपता धरी हाम ॥ चतुर० ॥ मणी मोती कनकना भूषणा ॥ चित० ॥ सम थापन तप नाम ॥ चतुर० ॥२॥ उत्तरता दोय पासथी ॥ चित० ॥ ओक दोय त्रिण्य अंक ॥ चतुर० ॥ नव कोठा वचिं शून्य छे ॥ चित्त० ॥ शेष घरे त्रिण्य टंक ॥ चतुर० ॥३॥ ओकादिक सोल सेरमां ॥ चित्त० ॥ डुगडुगीनो हवे ठाठ ॥ चतुर० ॥ पांत्रीस कोठा झुमखं ॥ चित्त० ॥ षट रेखायत आठ ॥ चतुर० ॥४॥ चोत्रीस त्रिगडा थापिई ॥ चित्त० ॥ शून्य वचिं करी अक ॥ चतुर० ॥ अथवा दु-ति-चउ-पण-षटें ॥ चित्र० ॥ पण-चउ-तिग-दु विवेक॥चतुर० ॥५॥ वा अक-दो-चउ-षट-अडें ॥ चित्त० ॥ षट-चउ-दो-ओक सार ॥ चतुर० ॥ गुरुगम थापनथी घणा ॥ चित्त० ॥ डुगडुगीना अधिकार ॥ चतुर० ॥६॥ पारणां अठ्यासी तप सवि ॥ चित्त० ॥ मास सत्तर दिन बार ॥ चतुर० ॥ च्यार वार कनकावली ॥ चित्त० ॥ तो होइं चोसरो हार ॥ चतुर० ॥७॥ कोठा नव नव पण तीसें ॥ चित्त० ॥ त्रीक ठामे दोय दोय ॥ चतुर० ॥ इणी रीते रतनावली ॥ चित्त० ॥ ओके ओकावली होय ॥ चतुर० ॥८॥ पडिमा भद्र महाभद्र ॥ चित्त० ॥ सर्वतोभद्र ते जोय ॥ चतुर० ॥ लघु गुरू आदि अनुक्रमे ॥ चित्त० ॥ सहनिक्किलीया दोय ॥ चतुर० ॥९॥ टीका थकी विधि जाणज्यो । चित्त० ॥ तप आम्बिल वर्धमान ॥ चतुर० ॥ बारें पडिमा आदरे ॥ चित्त० ॥ साधु सदा सावधान ॥ चतुर० ॥१०॥ धुर पडिमा ओक मासनी ॥ चित्त० ॥ इंम सातमी सात मास ॥ चतुर० ॥ सात सात अहोरातिनी ॥ चित्त० ॥ पडिमा त्रण्य निवास ॥ चतुर० ॥११॥ अहोराति अक रातिनी ॥ चित्त० ॥ अन्तिम दोय अ बार ॥ चतुर० ॥ सप्तम सप्तमिया कही ॥ चित्त० ॥ अष्टम अष्टमि सार ॥ चतुर० ॥१२॥ नवम नवमिया वासरा ॥ चित्त० ॥ दसम दसमिया ठाम ॥ चतुर० ॥
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१०
भद्र सुभद्रा सर्वतो- ॥ चित्त० ॥ भद्रा भद्रोत्तरा नाम ॥ चतुर० ॥१३॥ जवमध्य वज्राकारनी ॥ चित्त० ॥ मुक्तावली दोय मोय ॥ चतुर० ॥ प्रवचन सार-उद्धारमां ॥ चित्त० ॥ वलिय घणा तप जोय ॥ चतुर० ॥१४॥ तप तपता इंम साधुजी ॥ चित्त० ॥ सिद्धान्त पेटी हाथ ॥ चतुर० ॥ विचरंता अड मातस्युं ॥ चित्त० ॥ वीरप्रभुनी साथ ॥ चतुर० ॥१५॥
॥ दूहा ॥
सूत्र १५-१६ भाषा सर्व विशारदा, जिन नहि जिनसंकाश । सीह तणी परे दूर्धरा, अरिसा सम परकाश ॥१॥ अप्पडिहयगई जीव ज्यु, जात्य कनकमय रूप । शंख निरंजन द्विज परिं, छिन्न ग्रन्थ मुनिभूप ॥२॥
सर्वगाथा ॥१०५॥ __ ढाल-६ देवनाहना छोकरा थाय ॥ ओ देशी ॥ निरमोही साधु निरीह, मलपंता केशरी सीह । प्रतिबंध नहीं नहीं खेद, प्रतिबन्ध तणा चउभेद ॥१॥ द्रव्य क्षेत्र थकि काल भाव, समतावन्तने समभाव । कनकोपल चन्दनवासी, मुनि मोक्ष तणा छे आसी ॥२॥ पडिमा धरे जे मुनि जाति, गामे अेक नगर पंच राति । बीजा बहुला अणगार, नवकलपी करें विहार ॥३॥
सूत्र - १७ षट बाह्य तपें तप सार, अणसण ते पांच प्रकार । पांच उंणोदरीना बोल, भेद संलीनताना सोल ॥४॥ तपमध्य कह्या त्रण्य जेह, तस भेद तणो नही छेह । अभ्यन्तरमां षट रीत, दश भेदे कडं पायछित्त ॥५॥ अकावन विनय वखाणो, वेयावचना दश जाणो । सज्झाय ते पांच विधान, अडतालिस भेदे ध्यान ॥६॥
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६
अनुसन्धान ५२
वीस काउसग भेद न फेर, जमले ओकसो सित्र । उपदेश करे अणगार, आक्षेपणी आदि च्यार ॥७॥ ध्यान कोठे रह्या मुनिराज, संसार तरे व्रत झाज । शिवपंथे चले निज आथे, प्रभु सारथवाहनी साथे ॥८॥ नवकमल उपर संचरिया, मुनि परिवारे परिवरिया । प्रभु समवसर्या सुखकार, पूरण-भद्र चैत्य मोझार ||९|| रच्युं समवसरण ततखेव, मली च्यार निकायना देव । बार पर्षद हर्ष उजाणी, सुंणवा शुभवीरनी वाणी ॥१०॥ सूत्र - १८-२१
॥ दूहा ॥ सुरवर च्यार निकायना, वर्णादिक सुविशेस । ते वर्णव सूत्रें लह्यो, ७ ग्रन्थ बहुल न कहेसि ॥१॥ प्रभु आव्या पुर परिसरें, निसुंणी चम्पा लोक कोलाहल वचने थयो, त्रिक- चच्चर ने चोक ॥२॥
७ सर्वगाथा ॥११७॥
ढाल
श्री युगमन्धिरने कहेज्यो ॥ अ देशी ॥
बोले जिनवन्दन कामी, जन ओक ओकने शिरनामी । समवसर्या अरिहा स्वामी रे ॥१॥
चम्पावन सुरतरू फलियो, शिवपुर सारथवाह मलिओ रे || चंपा० ॥ दर्शन नयनांजन वरिई, तत्त्व वचन श्रवणे धरि ।
वन्दन नमन स्तवन करिइं रे ॥२॥ चंपा० ॥ दुरित समावणनें काजें, ईह भव सुख दुखडां धूजें । ईष्ट देव पडिमा पूजें रे ||३|| चंपा० ॥ तिम प्रभु पद सेवा करस्युं, मिथ्यामल दूरे हरस्यूं । ईह पर भव सुख अनुसरस्यूं रे ||४|| चंपा० ॥ ब्राह्मण क्षत्री भट जोहा, ईभ्य कुटम्बिक संवाहा । सेठ सेनापति सथवाहा रे ||५|| चंपा० ॥
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१०
केइक प्रभु दर्शन करवा, केईक परदक्षण फरवा । केइक समकित उच्चरवा रे ||६|| चंपा० ॥ समवसरण देखण हेवा, जीतकलप केइ दुख खोवा । केता नर कौतक जोवा रे ||७|| चंपा० ॥
'मीत्र वरग प्रेर्या जावे, निजनारी वचनें आवे । केइक नर आतिम भावे रे ॥८॥ चंपा० ॥ गुप्त अथ हेतु सुणस्युं, प्रश्न ते नय भंगे करस्युं । पूर्व सुणित निश्चल धरस्युं रे ||९|| चंपा० ॥ इंम चिंतवता व्रत लेवा, नागर लोक धनद जेहवा । स्नान करी पूजी देवा रे ॥१०॥ चंपा० ॥ वसनाभूषणस्युं जडीया, केइ पालखिइं निकलिया । हाथी -रथ-घोडें चडीया रे || ११|| चंपा० ॥ कलकल लोक शब्द करीइ, वेल वधे जिम भरदरि । चम्पापुरिमां संचरिइ रे ॥१२॥ चंपा० ॥
प्रभु देखी वाहन ठेवता, पंच अभिगम साचवता । श्री शुभवीर चरणे नमता रे || १३|| चंपा० ॥ १० सूत्र ॥ दूहाः ॥
२७
प्रवृत्तिवाहक भूपनें, देत वधामणि सार । प्रीतीदान रूपक मयी, लाख ते साढा बार ॥१॥
सूत्र २८ बलवाहकने तेडिने, राय कहे सुणि आज । सैन्य चतुर्विध सज करो, प्रभु साम्हइया काज ॥२॥ नगर सकल शणगारज्यो, सुभद्रादिक छेक । रथ सामग्री सज करो, राणी दीठ ओक ओक ||३|| सूत्र २९ स्वामी सिक्षा शिर धरी, बलवाहक तिणी वार । हस्तिवाहकने ठवे, सैन्य तणो अधिकार ||४||
८७
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८
रथशालिकने रथतणो, नगरतणो कोटवाल । बलवाहक सेनपती, इंम सुंप्या अधिकार ॥५॥
ढाल - ८ : जयो जिन नेमजी से || ओ देशी ॥ हस्तिरतन शणगारतो अ, उज्जल वेश विशाल । कवच शिर झुल्य छे अ, घण्टा घुघर माल ॥१॥
अनुसन्धान ५२
हरख हइयडें घणो ओ.....
अम्बाडी अम्बर अडी ओ, रत्न जडीत झलकन्त । कसेलां दोरडां अ, ग्रीवा भरण महन्त ||२|| हरख० ॥ कान आभूषण दीपतां अ, शिर सिंदूर सोहन्त ।
सरल कंचनमयी अ, गीरी दाढा दोय दन्त ||३|| हरख० ||
१९ कृष्णवरण चामर धर्या अ, मद गंधे झंकार ।
करे वलि अलि मली अ, तास वरणे अन्धकार ||४|| हरख० ॥
चाप प्रमुख शस्त्रे भर्यो अ, जिम रण थम्भ मनाक । गिरी शिर सेहरो अ, छत्र सध्वज सपताक ||५|| हरख० ॥
घण्टा युगल ते वीजली अ, मेघ समो करि श्याम । पवनजय वेगमां अ, पटहस्ति जस नाम ||६|| हरख० || घोडा रथ भट इंणि परे अ, सैन्य सजी चतुरंग । कहे सेनानीनें ओ ओ तुम आणि अभंग ||७|| हरख० || यान शालिक वाहन सजे ओ, यान शालाने बार । अन्तेउर कारणें अ, वस्त्रावृत अपहार ॥८॥ हरख० ॥ समलादिक छत्री धरीओ, यान शकट रथ जोय । कनक भुषण जड्यां अ, वृषभ जोतरिया दोय ||९|| हरख० ॥
निज निज सारथिने ठवी, सन्मुख मार्गे करन्त ।
पछें सेनानी ओ, भाखे सकल उदन्त ||१०|| हरख० ॥
हाट सजे हीरागले अ, मंचातिमंच कमाल ।
अशुचि कढावता अ, सुभट सहित कोटवाल ||११|| हरख० ॥
सीत सुगन्धी जल छटा अ, तिग चउ चच्चर ठाम | धाम परिव्राजका अ, आगन्तुक आराम ॥ १२ ॥ हरख० ॥
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१०
लघु उंचतर घर मण्डली अ, यानशाला धान्यगेह । आवेशन थानकें अ, खडीइ घोल्यां तेह ||१३|| हरख० ॥ ठाम ठाम ध्वज झलकता अ, पंचवरण छे अनूप । त्राट तोरण सज्यां अ, गन्धवटीना धूप ||१४|| हरख० || घोल करी हाथा दीया अ, रक्त चन्दन गोसीस ।
जई सेनानीनें ओ, वात कहें नमी शिस || १५ || हरख० ||
सूत्र ३०
भूपति बलवाहक थकी अ, सांभली हर्ष धरन्त ।
अट्टण शाला जई अ, मल्लयुद्धे थाकन्त ॥ १६ ॥ हरख० ॥ लक्षपाक तेल मर्दनें अ, पूरण पाणी पाय ।
कुशल शिलपी नरा अ, चउविह अंग सुहाय ||१७|| हरख० || गंध कुसुम तिरथोदकें अ, मज्जनघर करे स्नान ।
लुहे निज अंगने से, शाटिका रक्तवान ॥ १८ ॥ हरख० ॥ वस्त्र धरे विलेपणे अ, बावना चन्दन हर्ष ।
घणो वीर वांदवा से, नमन स्तवन उतकर्ष ॥१९॥ हरख० ॥
-
॥ दूहा ॥
मुगट धरे शिर सोहतो, हार वली अर्धहार । कुण्डल मुख अजुआलतां, कण्ठ ठवे फुलमाल ॥१॥ कटक-तुटित-थम्भित भुजा, शोभित श्रेणीकपूत्र | मुद्रा वेढ वरांगुली, रत्नजडित कटीसूत्र ॥२॥ लम्ब चीवर उत्तरासने, जडित रयण कनकांग । वीरगरव सूचक भणीं, वीरवलय भुज चंग ॥३॥ सहस उतर अठ शालिका, लम्बित मोती माल । दण्ड वैडुर्य रजतपटो, वांम प्रमाण विशाल ॥४॥ वीषहर ऋतु सुख उजलुं, छत्र हरत अन्धकार | मुखकज सेवन हंसिका, चंचल चामर च्यार ॥५॥ कल्पतरूस्युं अलंकर्यो, मज्जनघरथी राय ।
८९
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुसन्धान ५२
आव्या मंगलशब्दस्युं, जिहां पटहस्ति ठाय ॥६॥
सर्वगाथा ॥१६०॥ ढाल-९ आवो जमाइ प्राहुणा जयवन्ताजी ॥ओ देशी॥ साम्हइयुं विस्तारथी ॥ सुणो संताजी ॥ कहुं सूत्र अनुसार ॥ गुणवंताजी ॥ कोणीक पटहस्ति चढ्यो ॥ सुणो० ॥ सैन्य सज्जु तिणी वार ॥१॥ गुण० ॥ राजेश्वर ईभ्य तलवरा ॥ सुणो० ॥ सेठ सेनापति दूत ॥ गुण० ॥ कुटम्बिक माडम्बिया ॥ सुणो० ॥ सुभट वडा रजपूत ॥२॥ गुण० ॥ सन्धिपाले परिवर्यो । सुणो० ॥ ग्रहगणमां जिम चन्द ॥ गुण० ॥ आठ मंगल आगल चलें ॥ सुणो० ॥ प्रथम परमानन्द ॥३॥ गुण० ॥ साथिओ (१) श्रीवत्स (२) नन्दावर्त (३) ॥ सुणो० ॥ सरावसम्पुट (४) ठाठ
॥गुण०॥ भद्रासन (५) वरकुम्भ (६) छे ।। सुणो० ।। मच्छ (७) दर्पण (८) ओ आठ
॥४॥ गुण ॥ पूर्णकलश जलझारिओ ॥ सुणो० ॥ उंची करी वैजयन्त ॥ गुण० ॥ छत्र चामरयुत गुरु ध्वजा ॥ सुणो० ॥ अनुक्रमे सर्व चलन्त ॥५॥ गुण० ॥ पादपीठ पावडी धरा ॥ सुणो० ॥ रयण सिंहासन खास ॥ गुण० ॥ ओ सघलां लेइ चालिया ॥ सुणो० ॥ किंकर दासी दास ॥६॥ गुण० ॥ लष्टि-कुन्त-खडग धरा ॥ सुणो० ॥ चामर चाप ने पास ॥ गुण० ॥ पुस्तक व्यय उपज तणा ॥ सुणो० ॥ भाजन तैल सुवास ॥७॥ गुण० ॥ पुंगीफल ताम्बुल ग्रहा ॥ सुणो० ॥ योगी जटा धरनार ॥ गुण० ॥ चित्रफलक हासिकरा ॥ सुणो० ॥ मोरपिंछ वेहनार ॥८॥ गुण० ॥ चाटुवाद कन्दपिया ॥ सुणो० ॥ भांड भखंत हसन्ता ॥गुण० ॥ वीणा वाजिन गायना ॥ सुणो० ॥ केइ जन हास्य नचन्ता ॥९॥ गुण० ॥ कौतकिया रण हुसिया ॥ सुणो० ॥ जय जय शब्द करन्त ॥ गुण० ॥ वेग ललित लंघे खाइ ॥ सुणो० ॥ भुषण लक्षणवन्त ॥१०॥ गुण० ॥ चामर छत्र अलंकर्या ॥ सुणो० ॥ अकसो आठ तुरंग ॥ गुण० ॥ कुतील अनुक्रमे चालता ॥ सुणो० ।। उच समा शुचि अंग ॥११॥ गुण० ॥
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१०
९१
दन्त लघु कंचन मढ्या ॥ सुणो० ॥ कांइक उंच प्रमाण ॥ गुण० ॥ शणगार्या कुंजर चलें । सुणो० ॥ ते पण अडसय मान ॥१२॥ गुण० ॥ घण्ट धजा सपताकाओ ।। सुणो० ॥ तोरण चमर सचित्र ॥ गुण० ॥ नन्दीघोष द्वादशविधा ॥ सुणो० ॥ ते सघलां वाजित ॥१३॥ गुण० ॥ शक्ति त्रिशूल असि शर भरियां ॥ सुणो० ॥ बहु संग्रामिक शस्त्र ॥ गुण० ॥ ओकसो आठ ते रथ सज्यां ॥ सुणो० ॥ सारथी हययुत छत्र ॥१४॥ गुण० ।। कोणीक चेटक रण समें ॥ सुणो० ॥ सैन्य प्रमाण सुभाख ॥ गुण० ॥ गज रथ तेत्रीस सहस छे । सुणो० ॥ घोडा तेत्रीस लाख ॥१५॥ गुण० ॥ पाला तेत्रीस कोडि कह्या ॥ सुणो० ॥ हवणां मान न कीध ॥ गुण० ॥ शंख पडह भेर झल्लरि ॥ सुणो० ॥ मार्दल दुन्दुभि सिद्ध ॥१६॥ गुण० ॥ हस्तिखन्धे नरपती ॥ सुणो० ॥ मेघाडम्बर छत्र ॥ गुण० ॥ फूलमाल ते उपरे ॥ सुणो० ॥ सूरय इन्द चरीत्र ॥१७|| गुण० ॥ पग पग गुडी उछलें ॥ सुणो० ॥ बिरुद पठंते छात्र ॥ गुण० ॥ केता नर कर वींझणा ॥ सुणो० ॥ पाटि चलें नचे पात्र ॥१८॥ गुण० ॥
सूत्र - ३१ चम्पामांहि चालतां ॥ सुणो० ॥ याचक लेता दान ॥ गुण० ॥ लांगल गल धारक भटा ॥ सुणो० ॥ खन्ध बाल वर्धमान ॥१९॥ गुण० ॥ मुह मंगलीय नरा भणें ॥ सुणो० ॥ चिरंजीवो नरइन्द ॥ गुण० ॥ भूपमां भरत नरेसरू ॥ सुणो० ॥ तारागणमां चन्द ॥२०॥ गुण० ॥ त्रिण खण्ड भोक्ता पणे ॥ सुणो० ॥ विपुल भोगे जयन्त ॥ गुण० ॥ मुगट बन्ध राजा चलें ॥ सुणो० ॥ हय गय निज परितन्त ॥२१॥ गुण० ॥ कृष्णागर कुन्दरूकना ॥ सुणो० ॥ धूपघटी महकन्त ॥ गुण० ॥ कंसताल ग्रही घुमता ॥ सुणो० ॥ आगे निशान झगन्त ॥२२॥ गुण० ॥ नयन वदन माला करी ॥ सुणो० ॥ जोता \णता लोक ॥ गुण० ॥ मनोरथ हृदय आणन्दता ॥ सुणो० ॥ नरनारिना थोक ॥२३॥ गुण० ॥ अंजली श्रेणें प्रणमता ॥ सुणो० ॥ पत्र धरवा नहीं ठाम ॥ गुण० ॥ देव देवी रवि चन्द्रमा ॥ सुणो० ॥ जुइं गगन रही ताम ॥२४॥ गुण० ॥
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुसन्धान ५२
इंम नृप मोटे महोत्सवें ॥ सुणो० ॥ अनुकरमें पामंत ।। गुण० ।। समोसरण शुभवीरनुं ॥ सुणो० ॥ सैन्य सकल थापन्त ॥२५॥ गुण० ॥
॥ दूहा ॥ पटहस्तिथी उतरी, अभिगम साचवी राय । देइ त्रिण्य प्रदक्षणा, उचित थानकें ठाय ॥१॥
सूत्र - ३२ सुभद्रा पटनारि जे, सजी साम्हइयु उदार । ते पण आवी ततखिणे, समवसरण मोझार ॥२॥
१२सत्र - ३३
परषद बारे आगलें, दिइं देशन अरिहंत । भव निरवेद पणुं लहें, भव्य वनज विकसंत ॥३॥
सर्वगाथा ॥१८८॥ ढाल - १० अरणीक मुनिवर चाल्या गोचरी ॥ ओ देशी ॥ चेतन चेतो रे चतुरी चेतना, मोह प्रमादें सूतो रे । भव अटवीमां रे रझल्यो प्राणीयो, नरग निगोदें खूतो रे ॥१॥
चेतन चेतो रे चतुरी चेतना.... जिम कोइ रणमां रे रोतो ओकलो, कुंण ग्रही हाथो रे । शरण विहुणो रे दावानल बले, दीन कुरंग अनाथो रे ॥२॥ चेतन० ॥ इंम पण थावर विगलेन्द्री वस्यो, दुख दावानल लेहतो रे । पद पंचेन्द्री तिरजंचे लही, परवसि नित दुख सेहतो रे ॥३॥ चेतन० ॥ जातिसमरण नाणें नारकी, लहें पूरव भव वातो रे । हाथ घसंताइ जूगटीया परि, दुख सेहता दिन रातो रे ॥४॥ चेतन० ॥ जाति न योनी रे फरस्या विण रह्यो, नट ज्यूं नव नव वेसे रे । न्याय नदीउपल नरभव लह्यो, रयण द्विप सुनिवेसे रे ॥५॥ चेतन० ॥ पूत्र कलत्रनी मायाइं नड्यो, मच्छ जाल परें प्राणी रे । धिग् धिग् विषया रे ओ संसारमां, अथिरने थिर करी जाणी रे ॥६॥ चेतन० ।।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१०
सूरीकन्ताइं रे कन्त विर्षे हण्यो, चुलणी अंगज दाहो रे । श्रेणीक राजा रे कठ पंजर पड्यो, जुओ संसार सनेहो रे ॥७॥ चेतन० ॥ धनद निपाइ रे द्वीपायन दही, जल विण हरि अकेला रे । इंणे संसारे रे ओ सुख सम्पदा, कुशजल जलनिधि वेला रे ॥८॥ चेतन० ॥ भवजल ममता रे तंतुइं बांधियो, चेतन हाथी महंतो रे । मोक्षानन्दी रे निकलवु भनें, लही संयम जलकंतो रे ॥९॥ चेतन० ॥ आयु अन्त्य समय शिवपद वली, साकारें गतकंखो रे । ओक अवगाहनें सिद्ध अनन्तता, देश प्रदेश असंखो रे ॥१०॥ चेतन० ॥ स्यात्पद लम्बित नय भंगे करी, देशन षट द्रव्यरूपो रे । सुणी लघुकर्मा रे संयमश्री वरें, केइ देशविरति अनूपो रे ॥११॥ चेतन० ॥ समकित पाम्यां रे केइ भद्रक पणुं, व्रत वेली रस गीद्धी रे । श्री शुभवीर प्रभुनी देशना, शान्त सुधारस पीधी रे ॥१२॥ चेतन० ॥
॥ दूहा ॥ १३देशन सुणी नृप उठीयो, मन्दिर पहुतो जाम । गौतम प्रश्नोत्तर करी, प्रभु विचरन्ता ताम ॥१॥
सर्वगाथा ॥२०१॥
ढाल-११ राग-धन्यासी ॥ गायो गायो रे महावीर जिनेश्वर गायो, समकित व्रत निरमल इंम करज्यो, भविक मली निरमायो । नव जणे अरिहन्त भक्ति निपायो, जिनपद वीर पसायो रे ॥१॥ महावीर० ॥ प्रभु साम्हइयुं करत दशारण-भद्र ते केवल पायो । नेम मुनि नमतां निपजाव्यु, प्रभु पद कृष्ण कहायो रे ॥२॥ महावीर० ॥ भावस्तव रावण जिन भक्ति, नाटिक रंग भरायो । तंति कुं जोडत भवतति तोडत, चउदमें भव जिनरायो रे ॥३॥ महावीर० ॥ तिम भवि भाव धरी बलवीरय, फोरवतां शिव जायो । जिनशासन उद्योत करेज्यो, जिम जग कोणिक रायो रे ॥४॥ महावीर० ॥
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुसन्धान ५२
आवंतीमा द्रह सम सूरीवर, ते सरिखा उवझायो । मेढी समान गीतारथ जेणे, जिनशासन दीपायो रे ॥५॥ महावीर० ॥ साम्हइयुं करज्यो भवि तेहy, आणी हर्ष सवायो । विजय जिनेन्द्र सूरीश्वर राज्ये, ओ अधिकार बनायो रे ॥६॥ महावीर० ॥ तपगच्छनायक सींहसूरीश्वर, कुमति मतंग हठायो । तास सीस श्री सत्यविजय बुध, कपुरविजय गुरूरायो रे ॥७॥ महावीर० ॥ खिमाविजय गुरू सीस नगीनो, श्री जसविजय सुहायो । पण्डीत श्री शुभविजय सुगुरू मुझ, पामी तास पसायो रे ॥८॥ महावीर० ॥ वोहरा डोसा सुत जेठा नन्दन, लींबडी नयर रहायो । कुमतिने शिर ग्रह केतु कहायो, शासन जैन दीपायो रे ॥९॥ महावीर० ॥ वोहरा जयराजभाईने कारण, साम्हइयुं विरचायो । सूत्र वचन फूल माला गुंथी, जयराज कण्ठ ठवायो रे ॥१०॥ महावीर० ॥ वेद(४) रसु(६) वसु(८) चंद्र(१) संवत्सर ।१८६४।, देव दे(दी)वालीइं ध्यायो । वीरविजय जिन शान्ति पसाइं, संघनें शान्ति करायो रे ॥१९॥ महावीर० ॥ इति श्री कोणीकराज भक्तिगर्भित वीरजिन सन्मुख गमननमनोत्सवः समाप्तः ॥
ढाल-११ सर्वगाथा २१२ श्लोक संख्या - २५८ लि. । पं. वीरविजयेन । वो । जयराज पठनहेतवे.
टिप्पणी १. अहिंथी जे सूत्रांक आपेला छे ते औपपातिकना छे अने ते-ते सूत्रोनो भावानुवाद
त्यां सुधीनो छे. 'सलोमहत्थे = लोममय प्रमार्जनक' नो अहिं 'मोरपिंछ-पूंजणी' सीधो भावार्थ
लीधो छे.
४.
कपोत = कबुतर, कबूतरने पत्थर पण जीर्ण थाय = पची जाय. तेम भगवानने पण गमे तेवो आहार पची जाय. सरखावो - पद्मविजयजी कृत ऋषभजिनेश्वर स्तवन. कडी-६. 'चार अतिशय मूलथी, ओगणीश देवना कीध, कर्म खप्याथी अग्यार, चोत्रीस अम अतिशया, समवायांगे प्रसिद्ध'.
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१०
५.
जे
वेद वेदनी संख्या ४ छे. माटे वेदवदन सूत्र-९ मां कोणिकना परिवारनुं वर्णन छे, आ ग्रन्थ = कोणिक साम्हैयानी ढाळो बहुल हुं (= वीरविजयजी म.) कहीश नही. सरखावो पू. वीरविजयकृत स्नात्रपूजा :'आतमभक्ति मल्यो केइ देवा, केता मित्तनुजाइ,
नारी प्रेर्या, वळी निज कुल वट, धर्मी धर्मसखाइ.'
'पूर्व सुणित' कह्युं छे माटे ओम लागे छे के प्रभु अहिं पहेला पण पधार्या
हता अने देशना आपी हती.
भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष, वैमानिक देवोनुं
११. चामरोनो वर्ण कृष्ण बताव्यो छे. औप. टीका पण छे- 'चामरोत्करकृतान्धकारता चामराणां कृष्णत्वात् ।' त्यारे चामरो कृष्ण पण बनता हशे. अर्थात् चमरी गाय श्वेतनी जेम श्यामवर्णनी पण हशे .
६.
७.
८.
९.
१०. सूत्र - २२ थी २६. चारनिकाय वर्णन छे. अहिं लीधुं नथी.
S
-
९५
=
चतुर्मुख. अहिं लीधुं नथी.
घणी थइ जाय माटे विस्तारथी
=
१२. औप- सूत्र - ३४मां भगवाननी देशना आपी छे. परन्तु अहीं अ सूत्रनो भावानुवाद न लेता कविश्री पोतानी रीते भगवानना मुखमां देशना मूकी छे.
१३. सूत्र- ३५ मां मनुष्य पर्षदा, सूत्र - ३६मां कोणिक राजा अने सूत्र - ३७मां सुभद्रा वगेरे राणीओ देशना पूर्ण थया पछी स्वस्थाने पाछा जाय छे तेनुं वर्णन छे. अने
सूत्र ३८ थी ४३मां गौतमस्वामी अने प्रभु वच्चे थयेला प्रश्नो अने उत्तरो छे. अहिं सूत्र - १ थी ३३ नो भावानुवाद छे.
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
९६
हिला निन्दा अवहेलना.
परभात
= प्रभा
=
=
=
न मान = प्रमाण रहित - बेसुमार कोशिस कपिशिर्षक कांगरा
=
भुंगल = भोगळ = अर्गला
सेरी = शेरी = नानो मार्ग
नाकघर देव-गृह चरड = लुंटारो
धव धावडीनुं वृक्ष
वरग = वर्ग
सुगाल सुकाल हाली = खेडूतने त्यां गुलाम जेवी दशामां काम करतो मजूर रातो = रक्त = रागवाळो खेडो = खेतीमां रोपणी करनार माणस प्रवृत्तिवाहक सिलावटा = सलाट = पथ्थर घडनार =
शिल्पी
=
चचरिइ / चच्चर = चत्वर = संकिरण संकीर्ण
सांकडुं
रथनी पंक्ति
रथाली सुम
पुष्प
सेटी = सेतिका खडी चूनो
उखेव्या
=
=
=
=
करवो
=
=
==
=
जल्ल = दोरडा पर नाचनारा
लेखा वांस पर नाचनार नट जाति
मंखा
राजानो भाट / चित्रपट बतावी
गुजरान चलावनार
उद+क्षिप् = फेलाववुं, धुप
पाखलिइ = चोपास शीत सीत श्वेत
=
टिप्पणी
चोगान
-
करंडा कारंडा नामना हंस
वेंहल
वेल-वेलडु–गाडु
चारे बाजु
मेल्हण
मेल्हाण
वदिता वेदिका
आठ खूणाली = आठखुणावाळो = अष्ट
कोण
=
--
वेल
=
नरखी नीरखी गोपय गायनुं पयस = गायनुं दूध लंक कमरनो उपरथी पहोळो अने नीचेथी सांकडो भाग
नेट = नक्की
निकन्द
=
=
=
=
==
=
नाश
वास =
वर्ष
साप = श्राप
अडमात = अष्ट प्रवचन माता.
अप्पडिय अप्रतिहतगति. छेह = छेडो.
जमले = साथे, सरवाळे
अनुसन्धान ५२
=
झाज
जहाज
आथे = मूळी / मदद जोहा योद्धा
हेवा खेवना = झंखना जीतप जेनो उल्लेख शास्त्रोमां न
होय पण, गीतार्थो जेने मान्य करे
ते परम्परागत आचार.
भरती
मुकाम-पडाव.
-
समाचार लावनार
=
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________ सप्टेम्बर 2010 97 अपहार = कपडाथी ढांकेल गाडं, जेमां | तलवर = राजाओ बक्षिस आपेल सोनानो राज स्त्रीओ बेसे. | पट्टो धारण करनार धनवान समलादिक = कसब (=सोना-रूपाना | सन्धिपाल = राज्यना सीमाडा- रक्षण तारथी बनावेल कापड)थी बनावेली | करनार अमलदार टोपी भाण्ड = जोकर जोतरिया = गाडामां जोड्या उंच समा = उंचा समान = पवित्र उदन्त = खुश खबर | शक्ति = सांग नामनुं हथियार. हीरागल = रेशमी कपडं | पाला = पायदळ मंचातिमंच = मंच उपर मंच हवणा = हमणा त्राट = ताट्टी = वांसनो पडदो. | मार्दल = मृदंग शिलपी = अंगमर्दननी कलानो जाणकार | गुडी = नानी ध्वजा तुटित = तोडो, बेरखा, बाजुबन्ध परितन्त = परिवार वाम = बे हाथ पहोळा करी छातीनो | कंसताल = कांसी जोडा, कांसीया, मंजीरा ___ उपलो भाग मेळवता जे लंबाई | जुइ = जुओ छे थाय ते, आशरे त्रण गज = छ फुट | कठ पंजर = काष्ठ पांजरुं प्राहुणा = प्राघुर्णक = महेमान, परोणा | मेढी = आधार स्थम्भ C/o. धीरेनभाई गांधी गांधी फळिया, नानी बजार ध्रांगध्रा 363310