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सप्टेम्बर २०१०
भद्र सुभद्रा सर्वतो- ॥ चित्त० ॥ भद्रा भद्रोत्तरा नाम ॥ चतुर० ॥१३॥ जवमध्य वज्राकारनी ॥ चित्त० ॥ मुक्तावली दोय मोय ॥ चतुर० ॥ प्रवचन सार-उद्धारमां ॥ चित्त० ॥ वलिय घणा तप जोय ॥ चतुर० ॥१४॥ तप तपता इंम साधुजी ॥ चित्त० ॥ सिद्धान्त पेटी हाथ ॥ चतुर० ॥ विचरंता अड मातस्युं ॥ चित्त० ॥ वीरप्रभुनी साथ ॥ चतुर० ॥१५॥
॥ दूहा ॥
सूत्र १५-१६ भाषा सर्व विशारदा, जिन नहि जिनसंकाश । सीह तणी परे दूर्धरा, अरिसा सम परकाश ॥१॥ अप्पडिहयगई जीव ज्यु, जात्य कनकमय रूप । शंख निरंजन द्विज परिं, छिन्न ग्रन्थ मुनिभूप ॥२॥
सर्वगाथा ॥१०५॥ __ ढाल-६ देवनाहना छोकरा थाय ॥ ओ देशी ॥ निरमोही साधु निरीह, मलपंता केशरी सीह । प्रतिबंध नहीं नहीं खेद, प्रतिबन्ध तणा चउभेद ॥१॥ द्रव्य क्षेत्र थकि काल भाव, समतावन्तने समभाव । कनकोपल चन्दनवासी, मुनि मोक्ष तणा छे आसी ॥२॥ पडिमा धरे जे मुनि जाति, गामे अेक नगर पंच राति । बीजा बहुला अणगार, नवकलपी करें विहार ॥३॥
सूत्र - १७ षट बाह्य तपें तप सार, अणसण ते पांच प्रकार । पांच उंणोदरीना बोल, भेद संलीनताना सोल ॥४॥ तपमध्य कह्या त्रण्य जेह, तस भेद तणो नही छेह । अभ्यन्तरमां षट रीत, दश भेदे कडं पायछित्त ॥५॥ अकावन विनय वखाणो, वेयावचना दश जाणो । सज्झाय ते पांच विधान, अडतालिस भेदे ध्यान ॥६॥