Book Title: Khartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Akhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
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न्यतया हमारे पास अकाट्य प्रमाण उपलब्ध नहीं है, तथापि जो उपलब्ध होते हैं उन्हें ही हमें आधारभूत मानना होगा । उपाध्याय धर्मसागर के उल्लेखानुसार "वीरात् ८३२ चैत्य स्थिति है | आचार्य जिनवल्लभसूरि रचित "संघपट्टक" में वीर निर्वाण संवत् ८५० का संकेत प्राप्त होता है। एतिहासिक परम्परा की दृष्टि से देखें तो चैत्यवास के प्रादुर्भाव का यह समय अधिक समीचीन नहीं लगता । वस्तुतः उक्त समय में तो चैत्यवास पर्याप्त प्रगति कर चुका था ।
आचार्य स्वामी के काल में चैत्यवास के संकेत प्राप्त होते हैं। आचार्य पादलिप्तसूरि के समय में चैत्यवास का उल्लेख स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है, जो कि विक्रम की प्रथम शदी का है। परवर्ती काल में छठी-सातवीं शताब्दी तक चैत्यवास की परिस्थिति को प्रस्तुत करने के लिए हमारे पास प्रमाण प्राप्त हैं । आचार्य हरिभद्रसूरि के समय चैत्यवास पर्याप्त विस्तृत एवं विकसित था ।
चैत्यवासी : शिथिल साध्वाचार के अनुगामी
यह चैत्यवासी सम्प्रदाय मुनि-लिंग से सम्बद्ध था, किन्तु मुनि लिंग की विमलताएँ उसने नष्ट कर दी। इसका प्रभाव इतना अधिक फैल गया कि कठोर चर्या का पालन करने वाले श्रमण इसके सामने टिक न सके। चूँकि राज्य के अधिकारियों पर भी इनका प्रभुत्व था, अतः श्रमण नगरों में प्रवेश नहीं कर पाते। श्रमण चैत्यवासियों के विरुद्ध बोलना तो चाहते थे, किन्तु राजसत्ता के धनी चैत्यवासियों के दबदबे के कारण वे बोल न पाते ।
मुनि-जीवन अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के महाव्रतों का निरतिचार पालन करता है, किन्तु चैत्यवासी यति लोग साध्वाचार की मर्यादाओं को विशृंखलित कर बैठे। मुनि का धर्म है कि वह देश में पद यात्राएँ करते हुए सदाचार एवं सद्विचार की गंगा
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