Book Title: Katantra Roopmala
Author(s): Sharvavarma Acharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 15
________________ संज्ञासन्धिः क सिद्धः खलु वर्णानां 'समाम्नायो वेदितव्यः । ते के, -अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋल ल ए ऐ ओ औ। प: । चाइब रसद · द ध न प फ ब भ म । य र ल व श ष स ह इति । तत्र चतुर्दशादौ स्वराः ॥२॥ तस्मिन् वर्णसमाम्नाये आदौ ये चतुर्दश वर्णास्ते स्वरसंज्ञा भवन्ति । ते के, अ आ इ ई उ ऊक ऋ ल ल ए ऐ ओ औ इति । दश समानाः ॥३॥ तस्मिन् वर्णसमाम्नाये आदौ ये दश वर्णास्ते समानसंज्ञा भवन्ति । ते के --अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लट् इति। तेषां द्वौ द्वावन्योऽन्यस्य सवौं ॥४॥ तेषां समानानां मध्ये द्वौ द्वौ वर्णावन्योऽन्यस्य परस्परं सवर्णसंज्ञौ भवत: अआ इई। उऊ ऋऋ लुल् । तेषां ग्रहणं किमर्थ ? द्वयोर्हस्वयोर्द्वयोर्दीर्घयोश्च सवर्णसंज्ञार्थम् । श्लोकः क्रमेण वैपरीत्येन, लघूनां लघुभिः सह । गुरूणां गुरुभिः सार्थ, चतुर्थेति सवर्णता ॥१॥ इन वर्गों के समूह को आज तक न किसी ने बनाया है और न कोई नष्ट ही कर सकते हैं ये वर्ण अनादि निधन हैं । उनको जानना चाहिये । वे कौन हैं ? अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ । क ख ग घ ङ । च छ ज झ ब। ट ठ ड ढ ण । त थ द ध न । प फ ब भ म य र ल व । श ष स ह । ये सैंतालीस वर्ण कहलाते हैं। इनमें आदि के चौदह अक्षर स्वर कहलाते हैं ॥२॥ इन वर्गों के समुदायों में आदि के जो चौदह अक्षर हैं, वे स्वर संज्ञक हैं। वे कौन-कौन हैं ? अ आ इ ई ऊ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ । ये चौदह स्वर हैं। दश समान संज्ञक हैं ॥३॥ इन स्वरों में आदि के जो दश वर्ण हैं उनकी “समान" यह संज्ञा है। वे कौन है ? अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋल लू। इनमें दो-दो वर्ण आपस में सवर्णी हैं ॥४॥ इस समान संज्ञक स्वरों में दो-दो वर्ण आपस में सवर्ण संज्ञक हैं । अ आ, इ ई, उ ऊ ऋ ऋल लू । सूत्र में “तेषां" शब्द का ग्रहण क्यों किया है ? दो ह्रस्व वर्ण एवं दो दीर्घ वर्ण भी आपस में सवर्ण संज्ञक हैं इस बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्र में "तेषां" पद सार्थक है । अर्थात् चार प्रकार से सवर्णता मानी गई है। श्लोकार्थ—क्रम से अर्थात् ह्रस्व ह्रस्व का दीर्घ दीर्घ का दीर्घ ह्रस्व का और ह्रस्व दीर्घ का यह चार भेद हैं। १. अनादिकालेन प्रवृत्त इत्यर्थः । सिद्धशब्द: अनित्यार्थो वा निष्पन्नाथों का प्रसिदार्थो वा । कापिल्ये सिद्धस्थित इत्यत्र सिद्धशब्दोऽनादिमङ्गलवाची। २. सम्यगाम्नायन्ते अभ्यस्यन्ते इति समाम्नायाः। श्लोकः। व्यञ्जनानि क्यस्त्रिंशत्स्वराश्चैव चतुर्दश। अनुस्वारो विसर्गश्च जिह्वामूलीय एव च || गजकुम्भाकृतिर्वर्णः प्लुतश्च परिकीर्तितः। एवं वर्णास्त्रिपञ्चाशमातृकाया उदाहताः ॥२ ॥ ३. स्वयं राजन्त इति स्वराः ।।

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