Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ कर्मप्रकृति इन बातोंके सद्भावमें प्रस्तुत समग्र रचनाको गोम्मटसारके कर्ता-द्वारा निर्मित माननेको जी नहीं चाहता। इसीलिए पश्चात पं० जुगलकिशोरजीने इसपर अपना अभिमत निम्न प्रकार प्रकट किया - कर्मप्रकृति १६० गाथाओंका एक संग्रह ग्रन्थ है जो प्रायः गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्राचार्यकी कृति समझा जाता है, परन्तु वस्तुत: उनके द्वारा संकलित मालूम नहीं होता - उन्हीं के नामके, अथवा उन्हींके नामसे किसी दूसरे विद्वान्के द्वारा संकलित या संगृहीत जान पड़ता है। इस ग्रन्थका अधिकांश शरीर आदि-अन्त' भागोंसहित गोम्मटसारको गाथाओंसे निर्मित हुआ है - गोम्मटसारको १०२ गाथाएँ इसमें ज्योंकी-त्यों उद्धृत हैं और २८ गाथाएँ उसोके गद्य-सूत्रोंपर-से निर्मित जान पड़ती हैं। शेष ३० गाथाओंमें १६ गाथाएँ तो देवसेनादिके भावसंग्रहादि ग्रन्थोंसे ली गयो मालूम होती हैं, और १४ ऐसी हैं जिनके ठीक स्थानका अभी पता नहीं चला - वे धवलादि ग्रन्थोंके षट्संहननोंके लक्षण-जैसे वाक्योंपर-से संग्रहकार-द्वारा खुदकी निर्मित भी हो सकती हैं ( पुरातन जैनवाक्य-सूची, प्रथम भाग, वीर-सेवा-मन्दिर, सहारनपुर, १९५०। यह इस ग्रन्थके सम्बन्धमें अबतकका ज्ञात इतिहास है । हर्षकी बात है कि इसी बीच पं० हीरालाल शास्त्रीने इस ग्रन्थकी चार प्राचीन प्रतियां प्राप्त की जिनमें मुलके अतिरिक्त दो संस्कृत टीकाएँ, एक भाषा टीका, और एक टिप्पणी भी प्रकाशमें आये । पं० जीने इस सब सामग्रीका विधिवत् सम्पादन किया है और आवश्यक स्पष्टीकरणसहित हिन्दी अनुवाद भी। उन्होंने प्रस्तावनामें तविषयक अपेक्षित जानकारी दे दी है, और अपने विचार भी दिये हैं । उनके इस प्रयासके लिए हम उन्हें हृदयसे धन्यवाद देते हैं। एक बात और उल्लेखनीय है । यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थका नाम कर्मप्रकृति रखा गया है तथापि मूल ग्रन्थमें कहीं भी यह नाम नहीं पाया जाता । आदिकी गाथा गोम्मटसार कर्मकाण्डकी है और उसमें प्रकृति-समुत्कीतन व्याख्यान करनेकी प्रतिज्ञा की गयी है । टीकाकार सुमतिकोतिने भी अपनी संवत् १.६२०के लगभग रचित टीकामें उसे कर्मप्रकृति नामसे उल्लिखित न कर कर्मकाण्ड कहा है, और हेमराजने भी अपनी रचनाको कर्मकाण्डको भाषा टीका कहा है। यह इस कारण ठीक है, क्योंकि ग्रन्थका प्रायः दो-तिहाई भाग सीधा गोम्मटसार कर्मकाण्डसे लिया गया है। तीसरी अज्ञात लेखककी अनिश्चित कालकी जो टीका सुमतिकीर्ति कृत टोकापर-से ही संकलित पायी जाती है, उसकी अन्तिम पुष्पिकामें ही कहा गया है कि 'नेमिचन्द्रसिद्धान्ति-विरचित कर्मप्रकृतिग्रन्थः समाप्तः' । आश्चर्य नहीं जो इस ग्रन्थका संकलन स्वयं सुमतिकीर्तिने ही किया हो और अपने अभ्यासार्थ उसपर अपनी टीका लिखी हो। जो हो ग्रन्थ जिस रूपमें है उसका अस्तित्व कमसे कम गत तीनसौ वर्षोंसे तो पाया हो जाता है। यह सब प्राचीन साहित्यिक निधि ज्ञानपीठ, काशी, के संस्थापक श्री शान्तिप्रसादजी और उनकी विदुषी पत्नी श्रीमती रमा रानीजी तथा संस्थाके मन्त्री श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन व अन्य अधिकारी गण बड़ी रुचि और उत्साहसे प्रकाशित करा रहे हैं यह परम सौभाग्यकी बात है। ही० ला० जैन, जबलपुर आ० ने० उपाध्ये, कोल्हापुर ग्रन्थमाला-सम्पादक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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