Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 5
________________ ग्रन्थ की विशेषताएँ- कर्मकाण्ड को छोड़कर, यह प्रथम ग्रन्थ है, जिस में संक्षेप से चतुर्विध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेश बंध का निरूपण पाया जाता है। ग्रन्थ के विचारणीय बिन्दु - . अनंतानुबंधी कषाय को सम्यक्त्व एवं देश संयम का घातक कहा है, अन्यत्र अनंतानुबंधी कषाय को सम्यक्त्व को घात करने वाली मात्र कहा गया है। यह विषय विशेष रूप से अन्वेषणीय है। . ग्रन्थ में प्रकृति-बंध प्रकरण में कर्मबंध-अबंध का निरुपण है, अंत में कर्म क्षपणा विधि संक्षेप से प्ररूपित है। प्रकृतिबंध में कर्म बंध व्युच्छित्ति का कथन क्यों नहीं किया? आचार्य महाराज ने उदय अनुदय व्युच्छित्ति तथा सत्त्व त्रिभंगी को भी नहीं कहा है? . प्रदेश बंध के प्रकरण में ज्ञानावरणादि कर्मों के आस्रव के कारणों का निरूपण किया गया है। कर्म आस्रव के कारणों का प्रदेश बंध के अंतर्गत क्यों ग्रहण किया? अन्यत्र तो बंध प्रत्यय प्रकरण में इनको सम्मिलित किया गया है। . ग्रन्थकार ने अयोगकेवली गुणस्थान के द्विचरम काल में असाता वेदनीय की सत्त्व व्युच्छित्ति की है तथा चरम समय में साता वेदनीय की सत्त्व व्युच्छित्ति की है, अन्यत्र द्विचरम समय में, सातावेदनीय, असातावेदनीय इन दोनों में से किसी एक की व्युच्छित्ति की गई है और चरम समय भी यही व्युच्छित्ति की प्रक्रिया है। इस सम्पूर्ण कार्य का श्रेय आचार्य गुरुवर विद्यासागर एवं श्री डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य को जाता है। क्योंकि आपकी सत्कृपा के बिना यह गुरुतर जिनवाणी की सेवा का अवसर हम लोगों को प्राप्त ही नहीं होता। आप दोनों का आशीष हम लोगों पर सदा बना रहे जिससे निरंतर हम लोग स्व-पर हितकारी कार्यों में संलग्न रहें। इस ग्रन्थ का प्रकाशन उपाध्याय श्री निर्णय सागर के आशीर्वाद से निर्ग्रन्थ ग्रन्थमाला से हो रहा है। हम लोग आपके अत्यधिक आभारी हैं। उपाध्याय श्री अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी हैं। आपकी श्रुत में अगाध भक्ति है। निरंतर स्व–पर हित में संलग्न हैं। आगे भी हम लोगों को आपका आशीष मिलता रहे। ऐसी आशा है। पपौरा जी दीपमालिका 2004 ब्र0 विनोद जैन ब्र0 अनिल जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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